आज मुझे आप सब को एक कहानी सुनाने का मन है....
एक गिद्ध का बच्चा अपने माता-पिता के साथ रहता था। एक दिन गिद्ध का बच्चा अपने पिता से बोला- "पिताजी, मुझे भूख लगी है।'' "ठीक है, तू थोड़ी देर प्रतीक्षा कर।
मैं अभी भोजन लेकर आता हूूं।'' कहते हुए गिद्ध उड़ने को उद्धत होने लगा। तभी उसके बच्चे ने उसे टोक दिया, "रूकिए पिताजी, आज मेरा मन इन्सान का गोश्त खाने का
कर रहा है।'' "ठीक है, मैं देखता हूं।'' कहते हुए गिद्ध ने चोंच से अपने पुत्र का सिर सहलाया और बस्ती की ओर उड़ गया। बस्ती के पास पहुंच कर गिद्ध काफी देर
तक इधर-उधर मंडराता रहा, पर उसे कामयाबी नहीं मिली। थक-हार का वह सुअर का गोश्त लेकर अपने घोंसले में पहुंचा। उसे देख कर गिद्ध का बच्चा बोला, "पिताजी, मैं
तो आपसे इन्सान का गोश्त लाने को कहा था, और आप तो सुअर का गोश्त ले आए?'' पुत्र की बात सुनकर गिद्ध झेंप गया। वह बोला, "ठीक है, तू थोड़ी देर प्रतीक्षा कर।''
कहते हुए गिद्ध पुन: उड़ गया। उसने इधर-उधर बहुत खोजा, पर उसे कामयाबी नहीं मिली। अपने घोंसले की ओर लौटते समय उसकी नजर एक मरी हुई गाय पर पड़ी। उसने अपनी पैनी
चोंच से गाय के मांस का एक टुकड़ा तोड़ा और उसे लेकर घोंसले पर जा पहुंचा। यह देखकर गिद्ध का बच्च एकदम से बिगड़ उठा, "पिताजी, ये तो गाय का गोश्त है। मुझे
तो इन्सान का गोश्त खाना है। क्या आप मेरी इतनी सी इच्छा पूरी नहीं कर सकते?'' यह सुनकर गिद्ध बहुत शर्मिंदा हुआ। उसने मन ही मन एक योजना बनाई और अपने उद्देश्य
की पूर्ति के लिए निकल पड़ा। गिद्ध ने सुअर के गोश्त एक बड़ा सा टुकड़ा उठाया और उसे मस्जिद की बाउंड्रीवाल के अंदर डाल दिया। उसके बाद उसने गाय का गोश्त उठाया
और उसे मंदिर के पास फेंक दिया। मांस के छोटे-छोटे टुकड़ों ने अपना काम किया और देखते ही पूरे शहर में आग लग गयी। रात होते-होते चारों ओर इंसानों की लाशें बिछ
गयी। यह देखकर गिद्ध बहुत प्रसन्न हुआ। उसने एक इन्सान के शरीर से गोश्त का बड़ा का टुकड़ा काटा और उसे लेकर अपने घोंसले में जा पहुंचा। यह देखकर गिद्ध का पुत्र
बहुत प्रसन्न हुआ। वह बोला, "पापा ये कैसे हुआ? इन्सानों का इतना ढेर सारा गोश्त आपको कहां से मिला?" गिद्ध बोला, "बेटा ये इन्सान कहने को तो खुद को बुद्धि
के मामले में सबसे श्रेष्ठ समझता है, पर जरा-जरा सी बात पर 'जानवर' से भी बदतर बन जाता है और बिना सोचे-समझे मरने- मारने पर उतारू हो जाता है। इन्सानों के वेश
में बैठे हुए अनेक गिद्ध ये काम सदियों से कर रहे हैं। मैंने उसी का लाभ उठाया और इन्सान को जानवर के गोश्त से जानवर से भी बद्तर बना दियाा।
अब चलते हैं आज की चयनित रचनाओं की ओर....
क्या इतना बुरा हूँ में माँ,तो.........
विद्यालय में प्रवेश लेते ही वह बच्चा जिसकी नादानियों पर हम उसकी बलाएँ लेते थे आज उसकी एक गलती पर उसे डाँटने लगते हैं,जिस बच्चे से हमें कभी कोई शिकायत नहीं
होती थी आज उसी से अपेक्षाओं का पहाड़ है!इसका परिणाम --वह बच्चा जिसके ह्रदय में माता पिता को देखते ही सर्वप्रथम प्रेम व लाड के भाव उमड़ते थे आज उन्हें देखते
ही उनकी अपेक्षाओं पर अपनी असफलता से उपजे डर और अपराध बोध की अनुभूति होती है। समय के चक्र के साथ भावनाओं का परिवर्तन होने लगता है और प्रेम के ऊपर भय और
निराशा की विजय होती है।जैसे कि वह कह रहा हो
मातृ दिवस पर 5 हाइकु
छोटी-सी परी
माँ का अँचरा थामे
निडर खड़ी !
अम्मा लाचार
प्यार बाँटे अपार
देख संतान !
हैप्पी मदर्स डे ... माँ
माँ बिना इस सृष्टी की कलप्ना अधूरी है,
तो माँ की ये कथा अनादि है,
ये अध्याय नही है…
…और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
तो मैं कला की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ,
और दुनिया की सभी माताओं को प्रणाम करता हूँ ||
सम-भोग या उपभोग
ऐसे में एक लड़की अपने पसंदीदा लड़के के साथ दोस्ती करके, उसके साथ ऐच्छिक अनैतिक संबध बनाकर उसे आसानी से शादी के लिए मजबूर कर सकती है या फिर आराम से जेल
भेज सकती है. सरकार और समाज ने कितना बड़ा हथियार सौंपा है उनके हाथ ? किंतु कहने को यह समाज नर प्रधान है. क्या पता कईयों के लिए
यह कमाई का एक साधन भी हो. बेचारा लड़का जाए तो जाए कहाँ. लड़की की सहमति उस वक्त स्टैंप पेपर पर लेकर नोटरी तो नहीं कराई जा सकती.
महात्मा गाँधी ने पिछड़ी जातियों को देश की मुख्य धारा में लाने के लिए आरक्षण की परिकल्पना की थी. वोट के राजनीतिज्ञों ने उन्हें अनुसूचित जाति- जनजाति में बदल
दिया. उसमें अब तक न जाने कितने और वर्ग जोड़ दिए गए. लाभ हुआ तो केवल राजनीतिज्ञों को, जिनने वोटों की गिनती बनाए रखा. उसी तरह अबला कही
जाने वाली नारी को सबला बनाने के लिए सरकारों ने उसे अलिखित अनुसूचित लिंग बनाकर पुरुषों व किन्नरों से अलग कर दिया है.
डॉ पवन विजय के मुक्तक
स्वाभिमान से जीना है तो लाचारी से दूर रहो।
रोटी दाल भली है पूड़ी तरकारी से दूर रहो।
चैन मिलेगा पैर पसारो जितनी लम्बी चादर है,
उम्मीदों सपनों को बेंचते व्यापारी से दूर रहो।
आज बस इतना ही...
मिलते रहेंगे
कुलदीप ठाकुर।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति कुलदीप जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चयन
जवाब देंहटाएंसादर