दौड़ता रहा... भागता रहा
हुयी रात तो सबेरा भी हुआ
मगर न आया
तो वो सुनहरा कल ...
समय बदला, दिन बदला
जगह बदली, लोग बदले
यहाँ तक कि हम भी बदले
लेकिन न मिला तो केवल वो कल
नास्तिकता खूबसुरत है
एक अन्य आश्चर्य की बात है कि जहाँ सभी धर्म मनुष्य को ईश्वर का रूप
या फिर उसके द्वारा उत्पन्न मानते हैं, वहीं किसी भी धर्म में मनुष्यों की समानता को
पूर्ण रूप में धरातल पर नहीं उतरा गया और प्रत्येक धर्म में विशेषाधिकार युक्त
एक वर्ग मौजूद रहा जो व्यक्ति और ईश्वर के बीच के बिचौलिए का काम करता है.
शायद ही किसी धर्म में सभी मनुष्यों को सामान अधिकार होने की बात कही गयी हो.
इसके विपरीत नास्तिकतावाद चूंकि ईश्वर को ही नहीं मानता है,
इसमें ऐसे किसी बिचौलिए के होने की संभावना ही नहीं है.
कब तक ठुकराओगे
नारी के बिना नारायण कैसे कहला पाओगे
कितने जन्मों तक सोने की सीता बनवाओगे
बिन नारी जीवन, घर सूना, कैसे जगत चलाओगे। है राम
पत्थर को नारी करने वाले पत्थर बन बैठे
नैन मूँद कर ले लिए भगवन मर्यादा के ठेके
अपने ही अंतर्मन को आखिर
फिर मिलेंगे ........ तब तक के लिए
आखरी सलाम
विभा रानी श्रीवास्तव
शुभ प्रभात दीदी
जवाब देंहटाएंअच्छी रचनाएँ चुनी आपने
साधुवाद
सादर
सुन्दर सूत्र चयन ।
जवाब देंहटाएंशानदार.. आपके इस अच्छे प्रयास से सहज ही कई और बेहतर पंक्तियों का मौका मिल जाता है। साथ ही हौसला अफजाई का भी शुक्रिया....
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