शीर्षक पंक्ति:आदरणीय ओंकार जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
होलिका उत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ।
होली जैसे पवित्र त्योहार को
विवादों,
विद्रूपताओं
और संकीर्णता से बचाएँ,
बसंत-पतझड़ के मौसम में
दिल खोलकर खेलें होली,
खाएँ गुझिया और रंग-अबीर लगाएँ।
-रवीन्द्र
गुरुवारीय अंक में आज पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-
"देखिये तमाशा होली का" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
डाली-डाली
है गदराई,
बागों में
छाई अमराई,
गुलशन में
कलियाँ मुस्काई,
रंग-बिरंगी
तितली आई,
कानों को
अच्छा लगता सुर,
कोयलिया
की बोली का।
देख तमाशा होली का।।
*****
तुम होली नहीं
खेलना चाहो,
तो न सही,
कम-से-कम आ तो जाओ,
रंगत आ जाएगी कई
चेहरों पर
तुम्हारे आने-भर से।
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चिर बंदी
होना चाहे
सदियों
का
बंजारापन तुम्हारे वक्षःस्थल के
अंदर,
नजर घुमाई इधर -उधर।
एक गीदड़ आया
नज़र।।
पंडित जी ने
उसे बुलाया।
सारी बातों
को समझाया।।
बोला-गींदड़
विश्वास न होता।
पिंजरे में
भी बाघ है होता।
शैतान बाघ
ताव में आकर।
दिखाया
पिंजरे में घुसकर।
कहा गीदड़
-पंडित जी से।
पिंजरा बंद
होता है कैसे?
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तमिलनाडु के चुनाव का प्रस्थानबिंदु है 'भाषा' और 'परिसीमन' का मुद्दा
तुम होली नहीं खेलना चाहो,
जवाब देंहटाएंतो न सही,
कम-से-कम आ तो जाओ,
सुंदर चयन
होलिकोत्सव शुभ हो
सादर वंदन
बहुत सुंदर प्रस्तुति। आभार। होली की शुभकामनाएँ।
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