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मंगलवार, 4 मार्च 2025

4417....मैं नहीं जोड़.पाया..

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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आज की रचनाएँ-

माफ करना प्रिय
मैं नहीं जोड़ पाया इतने पैसे
कि गढ़वा दूं तेरे लिए सोने के कंगन
देखो न मैं खड़ा हूं तुम्हारे संग
धूप में छांव बन कर
ताकि मलिन न पड़े तेरे चेहरे की कांति! 




कोशिश करें, कुछ हटकर लिखें,
उस महिला के बारे में लिखें, 
जो अनदेखी की आग में
अरसे से सुलग रही है, 
उस बूढ़े के बारे में लिखें, 
जिसे मौत तक भूल चुकी है, 
उस बच्चे के बारे में लिखें,
जिसने कभी जाना ही नहीं बचपन। 


ओ निर्मोही तरस रहे हैं हम तेरे दीदार को ।
आ जाओ अब करो सार्थक तुम अपने इस प्यार को
तुमने ही तो ज़ख्म दिए हैं और किसे दिखलाएं हम 
कब तक सोखेंगे आँचल में नैनों की इस धार को ।



सुदूर कहीं


प्रसुप्त कोशिकाओं में सजलता भर गया कोई,
न जाने कौन मधुऋतु की तरह छू गया अंतर्मन,

हवाओं में है अद्भुत सी मंत्रमुग्धता का एहसास,
वन्य नदी के किनार फिर खिल उठे हैं महुलवन
,





पूरे सफर के दौरान, उसने दुख और पछतावे के साथ अपनी बातें साझा की, 
उसके शब्द मानव आत्मा में गहरे निशान छोड़ते गए-
जैसे पानी पत्थर पर धीरे-धीरे गिरकर उसे काटता है। 
उसने अपनी पत्नी से वादा किया कि 
आने वाले वर्षों में वह उसकी सारी इच्छाएं पूरी करेगा।
जब वे शहर पहुंचे, तो उसने पहली बार अपनी पत्नी को 
अपनी बाहों में उठाकर 
डॉक्टर के पास ले जाने की कोशिश की। 

 ★★★★★★★


आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

2 टिप्‍पणियां:

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