सादर अभिवादन
आगाज़
निराला जी की पंक्तियों से
सखि वसन्त आया ।
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया ।
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,
मधुप-वृन्द बन्दी--
पिक-स्वर नभ सरसाया ।
लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर,
बही पवन बंद मंद मंदतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया ।
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे,
केशर के केश कली के छूटे,
स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया ।
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ऐसे में मुझे
न जाने क्यों
बेसबब याद आती है बारिश ,
जिसमें घुल जाती हैं
अश्क की बूंदे
जिन्हें लोग अक्सर
बारिश में भीगी
खुशी समझते हैं।
मेरे मन ने प्रश्नों की बौछार से परेशान कर रखा है-
- वे लड़े क्यों नहीं?
- क्या वे आधुनिक लिबास में साधु थे ?
- क्या वे पूर्व परिचित थे ?
- क्या मालिक कोअपनी गाड़ी खुद पसन्द नहीं थी कि ठुक गई तो ठुकने दो …!
- तगड़ा इन्श्योरेंस होगा ?
-क्या वो दब्बू व डरपोक आदमी थे जो लड़ने में डर रहे थे ?
- क्या वे सज्जन किसी दुश्मन की गाड़ी उधार पर लाए थे ?……वगैरह…वगैरह…!
होली करीब है
तीन टायलेटी चुटकले
अल्लाह जाने मैं हूं कौन क्या है मेरा नाम
आज बस
सादर वंदन
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