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बुधवार, 2 अगस्त 2023

3837.. ढिबरी की लौ जैसे..

 ।। प्रातः वंदन।।


रात की अब तह बना दो, विगत को चादर उढ़ा दो,
प्रात की गाओ प्रभाती, उदित रवि को जल चढ़ा दो।
अब उठो कुण्ठा बुहारो !

~ डॉ मृदुल कीर्ति
चलिये चंद वैचारिक,अलंकृत शब्दों से रूबरू हो, अब नज़र डालते हैं लिंको पर..✍️

हम अपनी हद खोजना आरंभ करें

हम भी कितने गजब प्राणी हैं कि यह जानते हुए भी कि हमारा गुजारा इस प्रकृति के बिना नहीं है फिर भी तमाम तरह की नौटंकी करते हुए हम अपना जीवन जी ही लेते हैं, बहानों का हमारे पास अंबार है, हमें अपने आप को धोखा देना सबसे अधिक आता है, जबकि सबसे कठिन यही होता है, बहरहाल हमें जब प्रकृति में सौदर्य देखना..

🌟

टाईटैनिक के डूब लेने का मुहूरत कहीं ना कहीं तो लिखा होता है


 
माना कि कोई
कितना भी सांप हो लेता है
एक लम्बे समय तक
कुण्डली मार लेने के बाद  
सीधे हो कर लौटना
🌟


बेरहम काली-काली घटा घेर-घेर घनघोर 
आँधी, तूफाँ साथ लिए करती रहती शोर ।

जैसे आषाढ़ मास बीत गया सूखा-सूखा 
वैसे ना बीत जाये सावन भी रूखा-रूखा 
पपीहा गुहार करे कुहुकिनी कातर पुकारे 
धरा मनुहार करे फलक मोर दादुर निहारे 

🌟

मेरे भाई दारु नहीं पीना

भले कच्चा-पक्का, रुखा-सूखा खा लेना

भले जैसे तैसे करके घर तू चलना

भले किसी के गाय-बकरी चराना

मगर मेरे भाई दारु नहीं..

🌟

एक पेड़ चाँदनी

एक पेड़ चाँदनी

लगाया है आँगने

फूले तो

आ जाना

एक फूल माँगने

ढिबरी की लौ

जैसे लीक चली...

🌟

।। इति शम।।

धन्यवाद

पम्मी सिंह 'तृप्ति'...✍️

4 टिप्‍पणियां:

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