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शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

3853....आज़ादी के मायने

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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मैं जब भी गुजरा हूँ इस आईने से,
इस आईने ने कुतर लिया कोई हिस्सा मेरा.
इस आईने ने कभी मेरा पूरा अक्स वापस
           नहीं किया है--
छुपा लिया मेरा कोई पहलू,
दिखा दिया कोई ज़ाविया ऐसा,
जिससे मुझको,मेरा कोई ऐब दिख ना पाए.

मैं खुद को देता रहूँ तसल्ली
कि मुझ सा तो दूसरा नहीं है !!
#गुलज़ार

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अब चलिए आज की रचनाओं के संसार में-
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ये तो बिल्कुल सच है आज़ादी की सबकी अपनी परिभाषा है और विचार एवं समझ भी
पर यह समझना भी जरूरी है कि-मार 
समय को मुट्ठियों में क़ैद करने का ख़्वाब हसीं तो है पर सच तो नहीं न...

समय दिख रहा है दिखा रहा है सारा सब कुछ
ठहरे स्वच्छ जल में बन रही तस्वीर की तरह
लाल किले पर बोले गए शब्द कितने आवरण ओढे
तैरते सच की उपरी परत पर
देख सुन रही है एक सौ चालीस करोड जनता
दो हजार चौबीस के चुनाव के परीक्षाफल
चुनाव होना ही क्यों है उसके बाद
किसने कह दिया जरूरी है


संसार का हर क्षण परिवर्तन शील है कुछ भी एक सा कभी नहीं रहता समय और परिस्थितियों के अनुसार इंसान तो क्या ज़ज़्बात भी बदल जाते हैं।
अब आप चाहे इसे घटना कहें या दुर्घटना...।
कहाँ सोचा था 
कि ऐसे भी मुलाक़ात होगी,
न तुम पहचानोगी मुझे,
न मैं पहचानूँगा तुम्हें।


अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग एवं स्वयं से प्रेम करने वालों के लिए उम्र महज एक नं. के सिवा और कुछ नहीं।
प्रेरक अभिव्यक्ति।इसे पढ़कर याद आया
ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं...

मैंने कहा-भला तुम्हारे इशारे पे मैं क्यों नाचूँ ?
तुम मेरे हितैषी हो,ऐसा कैसे और क्यों सोचूँ ?
मुझको क्या अब,तुम ही दिखाओगे हर रास्ता?
भला क्यों?तुम्हारी बात से रखूं कोई मैं वास्ता?
अपनी शर्तों पर मैंने,अपने दिन-रात बिताए हैं ,
तेज आँधियों में भी,हठ पूर्वक दीपक जलाए हैं।


क़म शब्दों में बहुत कुत समेटने के लिए गज़ल से बेहतर 
कुछ नहीं ,समसामयिक बेहतरीन अभिव्यक्ति
जंगल जल रहे, ढह रहे पहाड़ 
कुदरत के तेवर भी गरम हो गए 

नफरत के झंडे हो रहे बुलंद 
कैसे ये हमारे धरम हो गए 


और चलते-चलते
अपने आस-पास बिखरी कहानियों के मर्म को समझना ही संवेदनशील क़लम की पहचान है।
समाज की मानसिकता का सूक्ष्म विश्लेषण आसान नहीं
बहुत कुछ कहता साप्ताहिक धारावाहिक
अब ... "चुल्हिया बुतान" जैसे शब्द से जो लोग परिचित हैं,  उनके लिए तो नहीं पर .. जिन पीढ़ी या समाज के लिए यह अंजान शब्द है .. उनको प्रसंगवश बतलाना लाज़िमी है कि ... दरअसल यह गँवई लोगों द्वारा व्यवहार में लाया जानेवाला शब्द है, परन्तु इसे गँवार लोगों की भाषा मानने की भूल हमें कतई नहीं करनी चाहिए, जिसे बिहार की राजधानी पटना जैसे शहर में भी मुहल्ले वाली संस्कृति में बचपन से सुनता आया हूँ .. जो धीरे-धीरे 'कॉलोनीयों' और 'सोसायटियों' वाली संस्कृति में ना जाने कब और कहाँ विलुप्त हो गयी .. बल्कि इन्हें गँवारों की बोली-भाषा करार कर दिए गये। ख़ैर ! ... "चुल्हिया बुतान" का शाब्दिक अर्थ होता है- चूल्हे को बुझा कर यानि जिनके घर जिस शाम/पहर के भोज का न्योता गया है, उस शाम उनके घर का चूल्हा नहीं जलेगा, बुझा रहेगा .. मतलब- समस्त परिवार भोज में आकर जीमेगें .. 

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 आज के लिए इतना ही

कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।



7 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी रचना " हठी से पाला " को पाँच लिंकों का आनंद में स्थान देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद Sweta sinha !🙏😊

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