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गुरुवार, 10 अगस्त 2023

3845...हवा के झोंके सी उम्र निकल गई...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया रेखा जोशी जी की रचना से। 

सादर अभिवादन। 

गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-   

 ज़िन्दगी गुज़र गई

था सुहाना बचपन

बेफिक्र मौज मस्ती का आलम

कब आई जवानी कब बीता बचपन

हवा के झोंके सी उम्र निकल गई

 कुछ दोहे

वाणी का आदर करें, करें न इससे चोट

अपने जन ही ग़ैर बन, व्यर्थ निकालें खोट

वाणी जोड़े दिलों को, सुख का है आधार

वाणी ही संबल बने, बन जाती है प्यार

अंतहीन : गीत

वो बचपना आज कहीं खो गया,

बस्तों के नीचे दबा लिया लगा।

कंप्यूटर मोबाईल लत चाटने लगा,

बाल मन डिजिटल डाटा कब्ज़ाने लगा।

धर्माधिकारी

वृद्धाश्रम वालों ने नगद राशि की माँग रखी थी। तुम्हारी माँ की ज़िद थी कि वृद्धावस्था वृद्धों के संग गुजारेंगे। पहले वृद्धाश्रम का स्वाद नहीं चखी थी। वहाँ की स्थिति देख जिद पकड़ ली वहाँ से निसंतान वृद्ध को घर लानी चाहिए।

•••••     •••••

उसका सपना तो अब धरा का धरा नहीं रह गया। हमलोग निसंतान दम्पत्ति को घर ले आने वाले हैं। वे अनाथाश्रम में पले थे। हमारे साथ रहने से, वहाँ से मुक्त हो जाने से वृद्धाश्रम ग्रह गया।

सच्चाई का बीज पनपता जरूर है

इंसान जब पैदा होता है तो अजब-गजब भविष्य-वाणियों के बावजूद कोई नहीं जानता कि वह बडा होकर क्या बनेगा या क्या करेगा, पर यह निर्विवादित रूप से सबको पता रहता है कि उसकी मौत जरूर होगी। इतने बडे सत्य को जानने के बाद भी इंसान इस छोटी सी जिंदगी में तरह-तरह के हथकंडे अपना कर अपने लिए सपनों के महल और दूसरों के लिए कंटक बीजने में बाज नहीं आता। कभी कभी अपने क्षण-भंगुर सुख के लिए वह किसी भी हद तक गिरने से भी नहीं झिझकता। लोभ, लालच, अहंकार, ईर्ष्या उसके ज्ञान पर पर्दा डाल देते हैं।

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

3 टिप्‍पणियां:

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