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सोमवार, 28 अगस्त 2023

3863 ..कभी पलट कर नहीं देखती नदी

 सादर अभिवादन

सावन जा रहा है और
अगस्त को भी साथ ले जा रहा है
नियति का नियम है..
जो आया है वो जाएगा ही
अब....
जीवन की किताबों पर,
बेशक नया कवर चढ़ाइये;
पर बिखरे पन्नों को,
पहले प्यार से चिपकाइये !!

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कभी पलट कर नहीं देखती नदी,
सब कुछ बहा ले जाती नदी ।
फिर हम क्यों पालें मनमुटाव
करें अपनों से ही दुराव-छिपाव ?
क्यों रोकें बहती नदी का बहाव
और खेते रहें टूटी हुई नाव ?
क्योंकि समय नहीं करता लिहाज ।




नवल रूप है प्यारा प्यारा
जब देखो अनोखा दिखता
आकर्षण है गजब का
मन भूल नहीं पाता |



अब दूर हुआ सब गम,
हम हैं न किसी से कम,
भारत का मान बढ़ा
जनता को जगाएं हम;
दीवाली मना कर के
अंधियारी हटानी है,
लहरा के तिरंगे को
नव आस जगानी है।




लकीर की फकीर
चलती चुपचाप,
बिना प्रश्न, सिर झुकाए
एक दायरे में रहती
लक्ष्मण रेखा के भीतर
जीती एक आम सी जिंदगी



वैदिक व्यवस्था में ‘शूद्र’ एक सामान्य और गुण आधारित संज्ञा थी। जन्मना जातिवाद के आरंभ होने के बाद, जातिगत आधार पर जो ऊंच-नीच का व्यवहार शुरू हुआ, उसके कारण ‘शूद्र’ नाम के अर्थ का अपकर्ष होकर वह हीनार्थ में रूढ़ हो गया। आज भी हीनार्थ में प्रयुक्त होता है। इसी कारण हमें यह भ्रांति होती है कि मनु की प्राचीन वर्ण व्यवस्था में भी यह हीनार्थ में प्रयुक्त होता था, जबकि ऐसा नहीं था। इस तथ्य का निर्णय ‘शूद्र’ शद की व्याकरणिक रचना से हो जाता है। उस पर एक बार पुनः विस्तृत विचार किया जाता है।




"पता नहीं सा'ब। 
आप अख़बार नहीं पढ़ते क्या? 
मुख्यमंत्री जी उन के साथ कोई मीटिंग-वीटिंग तो करते रहते हैं। 
अब आप खाली-पीली में तंग मत करो, वरना हम आप को भी टपका देंगे।"
... और मैंने अपनी कार की रफ़्तार बढ़ा दी।

आज बस इतना ही
सादर

1 टिप्पणी:

  1. मेरी रचना 'नसीहत' को इस सुन्दर पटल का हिस्सा बनाने के लिए आ. यशोदा जी का हार्दिक धन्यवाद! सभी रचनाकारों को बधाई!

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