शीर्षक पंक्ति:आदरणीया मीना भारद्वाज जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक पाँच ताज़ातरीन रचनाओं के लिंक्स के साथ हाज़िर हूँ-
लगने लगता सारा जग एक
फरेवों की दुकान सा
अब सुविचारों पर से भी
दूर हटा मन मेरा।
किसी दिन वह कहता कि वह अत्यधिक प्रेम से ऊब
जाता है..
किसी दिन किस्सा सुनाता कि कैसे उसे अपनी
करीबी मित्र से प्यार हो गया था लेकिन बस इकतरफा वह महिला तो अपने पति के प्रति
वफादार थी।
पवन झकोरों के संग देखो
टूटे शाख से पल्लव
दर्द उठा तरुवर के मन में
उठती नज़र हुई नम
ऐसा लगने लगा है,मैं हूँ इक नदिया विकल सी ,
तुम सागर सरीखे,मैं तुमसे मिलने को अधीर सी,
अतृप सी दौड़ती,मचलती,छलकती हुई आती हूँ ,
तुम्हारे एहसास संग अपना सार सम्पूर्ण पाती हूँ।
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार आपका
जवाब देंहटाएंश्रमसाध्य प्रस्तुति हेतु साधुवाद
बेहतरीन सूत्रों से सजी बहुत सुन्दर प्रस्तुति में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए सादर आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह जी ।
जवाब देंहटाएंवाह!सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिंक्स का चयन ....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सराहनीय अंक।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
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