शीर्षक पंक्ति: आदरणीया डॉ.(सुश्री) शरद सिंह जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
रविवारीय अंक
के साथ हाज़िर
हूँ।
आइए पढ़ते
हैं आज की
पाँच पसंदीदा रचनाएँ-
फिर भी मन का प्यासा प्याला रीता
अपने सपनों का संसार
मनोभावों को साकार रूप दिया है
मेरी लेखनी की मूक स्याही ने
जो मन के हाहाकार से छेद,बेंध पन्नों को
कराती हैं आत्मबोध
ग़ज़ल | जाड़े वाली रात | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
पन्नीवाली झुग्गी कांपे, कांप रहा फुटपाथ
बरपाती है क़हर हमेशा जाड़े वाली रात
जिसके सिर पर छत न होवे और न कोई शेड
लगती उसको ज़हर हमेशा, जाड़े वाली रात
नीड़ बसाया खग वृन्दों ने
एक - एक कर उड़े सभी वो विचरण करने नभ में
रिक्त लगे नीड़ होने
फिर, उन्हें
ही ढ़ूंढ़ती, ये पलकें,
और, उन्हीं
फासलों में, मचले कहीं जज्बात हैं!
ये, धुंधलाती
नजर, भूल पाती हैं कब उन्हें,
ख़ामोश,
ये लब कहे,
ईश्क
की, अलग ही बात है!
उस मुकम्मल
ईश्क की ये शुरुआत है!
”साहेब! आर्मी वालों का कोई ठिकाना नहीं होता। कब तक लौटेगा…? मेरे को इतना टाइम कहाँ…! मैं क्या करेगी; कहाँ रखेगी बच्ची को ?"
नर्स पीछे से आवाज़ लगाती है।
शानदार रचनाओं का चयन
जवाब देंहटाएंआभार
सादर..
बहुत सुन्दर संकलन ।मेरे सृजन को संकलन में सम्मिलित करने के लिए सादर आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संकलन।
जवाब देंहटाएंउम्दा लिंक्स चयन
जवाब देंहटाएंसराहनीय संकलन।
जवाब देंहटाएंमेरी लघुकथा को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार आदरणीय रविंद्र जी सर।
सादर
बहुत सुंदर सराहनीय अंक ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना संकलन
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