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कल से इन्तजार और इन्तजार
2022 का
सादर
दिन भर ब्लॉगों पर लिखी पढ़ी जा रही 5 श्रेष्ठ रचनाओं का संगम[5 लिंकों का आनंद] ब्लॉग पर आप का ह्रदयतल से स्वागत एवं अभिनन्दन...
हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...
"अद्धभुत, अप्रतिम रचना।
नपे तुले शब्दों में सामयिक लाजवाब रचना। दशकों पहले लिखी यह आज भी प्रासंगिक है। परिस्थितियाँ आज भी ऐसी ही हैं।
लाज़वाब.. एक कड़वी हकीकत को बयां करती सुंदर रचना।
रचना में अनकहा कितना सशक्त है। मार्मिक व सच्चाई को उजागर करती उम्दा रचना।
सशक्त, गजब, बेहतरीन, बहुत शुक्रिया, इस रचना को पढ़वाने का हृदय से आभार..
जैसे आदि-इत्यादि टिप्पणियों के बीच में कोई भी विधा की रचना हो तुम्हारे भाँति-भाँति के सवाल, तुम्हें ख़ुद में अटपटे नहीं लगते?"
"नहीं ! बिलकुल नहीं.. अध्येता हूँ। मेरा पूरा ध्यान विधा निर्देशानुसार अभिविन्यास पर रहता है। और करना भी तो पड़ता है"
कुछ तो है ऐसा जो अन्दर चुभ रहा है पर दिख नहीं रहा।टीस तो उठ रही है पर वजह क्या है समझ नहीं आ रही।एक सन्नाटा सा मन में है।क्या कहें उसे सन्नाटा,निशब्द,शून्य या फिर कुछ और? बस इतना पता है कि कुछ तो मर गया है अन्दर, निशास्वत होगया है। कितना भी उठाओ झिंझोड़ो मन है कि पहले सा दौड़ता नहीं है।
खूब हुई है कहासुनी ...
इसबार सुन लूं 'अनकही '...|
ताकि जान सकूं 'ना ' में छुपी 'हाँ' को ,
गुस्से में दबे प्यार को ,
और खुद्दारी में समाई प्यास को ......
ईश्वर की वो सुंदर रचना है
गर भक्ति मार्ग प्रस्थ करे
तो लौकिक होते हुए भी
पारलौकिकता
का अनुभव बोध करा सकती है
एक प्रतीक्षित मृत्यु स्वयं के साथ न जाने कितने जीवित लोगों को मुक्त कर देती है–-यह विचार उस कुहासी मौसम में उसे अधिक ठंडी झुरझुरी दे गया।
अन्तेयष्टि के बाद निकटतम परिचित लोग परिवार जनों से मिलकर अपने घरों को जा रहे थे।भीड़ के एक छोर पर वह खड़ा था।
मीठी-मीठी बात किसी की
फ़ौरन ठग लेती है
मीठी छुरियो ने हरदम
गर्दन तेरी रेती है
मीठा विष भी होता है
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चलिए आज के रचनाओं के रचनाओं के संसार में
सादर अभिवादन।
गुरुवारीय अंक
लेकर हाज़िर हूँ।
नवंबर की धूप मनभावन लगे,
खिले-चहके घर-आँगन लगे।
आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
कौन हमसे ज्यादा
मन को प्यारा होता
क्या है उसमें
लाडला किस लिए
ख्याल तुम्हारे
सबसे अलग हैं
प्रिय हैं मुझे
तब यह दूरी क्यों
किसके लिए |
जिन तालाबों का पानी पीते थे बेधड़क
वे तालाब सूख जाएंगे
और उदास हो जाएंगे नदियों के तट
जिनपर पर "मास" करने नहीं आया करेंगे आस्थावान श्रद्धालु ।
बहुत दिनों तक रास रचाए
ग्वाल बाल सँग चोरी
और घनेरा माखन खाया
फोडी गगरी बरजोरी
सब कुछ भोगा इसी धरा से
विश्व नाचता दरणी पर।।
सियासत का लहू | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
क्यों सन्नाटें को छोड़
जब
गुजरता हूँ भीड़ से कई
टुकड़े हो जाते है
मेरे तन-मन के अब।
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आज बस
यहीं तक
फिर मिलेंगे अगली
प्रस्तुति में आगामी
गुरुवार।
रवीन्द्र सिंह
यादव
।। उषा स्वस्ति।।
प्राची ने खिड़की खोली
अब नवल सूर्य है जाग रहा
चिर परिचित कुसुमों के दल सेके रचनाकार
फिर मांग रहा है चाँद विदा!
धरती के घूँघर से जग कर
है कृषक पथ नाप रहा
बैलों के खुर की धूल भरा
नव यौवन सा है प्रात उगा..!!
लावण्या शाह
आप सभी का बुधवार की सुबह और चिरपरिचित कुसुमों के दल .. संग शामिल आज के रचनाकारों के नाम क्रमानुसार पढें..
आ० अनिता जी,
आ०अपर्णा त्रिपाठी जी,
आ० आशा लता सक्सेना जी,
आ० उदय वीर सिंह जी
आ० -यशवन्त माथुर जी...✍️
एक अनेक हुए दिखते हैं
ज्यों सपने की कोई नगरी,
मन ही नद, पर्वत बन जाता
एक चेतना घट
❄️
दिल में फिर, इक ख्वाब पल रहा है,
जमाना फिर हमसे, कुछ जल रहा है
उनके आने के लम्हे, ज्यों करीब हुये
इंतजार कुछ जियादा, ही खल रहा है
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या हो पुष्प कमल का
उन तक जाने में
पहुँच मार्ग में
बड़े व्यवधान आते हैं |
दौनों तक पहुँच पाने में
हम उलझ ही जाते..
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छीना नहीं बख्सा है रब ने स्वीकार करते हैं।
रब का नूर आला है वो सबसे प्यार करते हैं।
रोक देती है चलने से पहले शमशीर खुद को,
❄️