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सोमवार, 27 अप्रैल 2020

1746...हम-कद़म का एक सौ सत्रहवाँ अंक.... चूल्हा

सोमवारीय अंक में
आपसभी का
स्नेहिल अभिवादन
---------
इस बार हमक़दम का विषय था 
एक चित्र


इसे चूल्हा कहिये या आग,अग्नि 
ज्वाला अनेक अर्थों में
एक भाव समेटे हुये।

चूल्हे में जलती आग से पवित्र 
कुछ नहीं होता 
 चूल्हे जलते हैं
संसार की क्षुधा मिटाने के लिए।



भूख के एहसास पर
आदिम युग से
सभ्यताओं के पनपने के पूर्व
अनवरत,अविराम
जलते चूल्हे...
जिस पर खदकता रहता है
अतृप्त पेट के लिए
आशाओं और सपनों का भात, 
जलते चूल्हों के
आश्वासन पर 
निश्चित किये जाते हैं
वर्तमान और भविष्य की
परोसी थाली के निवाले
 उठते धुएँ से जलती
पनियायी आँखों से
टपकती हैं 
 मजबूरियाँ
कभी छलकती हैं खुशियाँ,
धुएँ की गंध में छिपी होती हैं
सुख-दुःख की कहानियाँ
जलती आग के नीचे
सुलगते अंगारों में
लिखे होते हैं 
आँँसू और मुस्कान के हिसाब
बुझी आग की राख में
उड़ती हैंं
पीढ़ियों की लोककथाएँ
बुझे चूल्हे बहुत रूलाते हैं
स्मरण करवाते हैं
जीवन का सत्य 
कि यही तो होते हैं 
मनुष्य के
 जन्म से मृत्यु तक की 
यात्रा के प्रत्यक्ष साक्षी।

#श्वेता
....


कालजयी रचनाएँ

उदाहरणार्थ दी गई रचना

कुमार कृष्ण
जलता है मानचित्र
लोकतन्त्र का
फ्रेम से गिरकर
बाहर निकल आती
आजादी की उपेक्षित तस्वीर।

बहुत बार देखा है उसने देश को
रोटी की तरह रंग बदलते
बौनी दीवारों पर उसके
पकता है हर रोज
पूरा देश
देश....
जो नहीं कुछ और
रोटी के ठण्डे टुकड़ों की

बाबा नागार्जुन
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।


ऋषभ देव शर्मा
चिकनी पीली मिट्टी को
कुएँ के मीठे पानी में गूँथ कर
बनाया था माँ ने वह चूल्हा
और पूरे पंद्रह दिन तक
तपाया था जेठ की धूप में
दिन - दिन भर
★★★★★ 

चिट्ठाजगत 
 से कालजयी रचनाएँ


आदरणीय ज्योति खरे सर
कोई आयेगा

टांग देती हैं
  खूंंटी पर सपने
 सहेजकर रखती हैं आले में
      बिखरे रिश्ते
डिभरी की टिमटिमाहट मेँ
     टटोलती हैं स्मृतियां--



आदरणीय विश्वमोहन जी
गरीबन के चूल्हा चाकी

ये गइया के चरवैया!
ब्रह्मपिशाच
गोबर्द्धन-बिलास!अबकी गले
का अटकाये हो!
भईयाका खाये हो?जो गंगा मईया को
सखी सलेहर संग,गरीबन के चूल्हा चाकी
दिखाने आये हो।



...............
नियमित रचनाएँ
..................


आदरणीय आशा सक्सेना
गृहणी

सांझ उतरते ही आँगन में
दिया बत्ती करती
और तैयारी भोजन की |
चूल्हा जलाती कंडे लगाती
लकड़ी लगाती



आदरणीय शुभ मेहता
आग

आग चूल्हे  की हो
या पेट की...
एक जलती है
तब दूसरी बुझती है
और चूल्हा जलता कब है?
पूछो उन  मजदूरों से .. ....
आज बोल कर गया था

आदरणीय साधना वैद
चूल्हा

चूल्हे के नाम से ही
माँ याद आ जाती हैं
रसोईघर में चूल्हे के पास पटे पर बैठीं
साक्षात अन्नपूर्णा सी माँ !
जलती लकड़ियों की आँच से तमतमाया
उनका कुंदन सा दमकता चेहरा,
माथे पर रह रह कर उभरते श्रम सीकर,
आँखों में अनुपम अनुराग और
चहरे पर तृप्ति की अनुपम कांति !

आदरणीय सुजाता प्रिय
बेचारा चुल्हा

चुल्हे में आग जलता है और चुल्हे को जलाता है।
पर, बेचारा चुल्हा कुछ भी तो नहीं कह पाता है।

क्योंकि उसे जलना है बस भोजन पकाने के लिए।
और उसे तपना है सभी चीजों को तपाने के लिए।

आदरणीया रितु आसुजा जी
जीवन का सार अग्नि

सूर्य का तेज भी अग्नि
 जिसके तेज से धरती पर 
 मनुष्य सभ्यता पनपती
 अग्नि विहीन ना धरती
 का अस्तित्व ।


 अग्नि के रूप अनेक 
 प्रत्येक प्राणी में जीवन
 बनकर रहती अग्नि।


अभिलाषा चौहान
हे मजदूर

दबा के चंद सिक्के मुट्ठी में
बिना किसी चाह व शंका के
तुम अपना चूल्हा जलाते हो
न तुम्हें चिंता पद की न रूतबे की
न दिखावे की न किसी चोरी की
दिनभर अथक परिश्रम बस
बिना किसी तृष्णा के
बिना किसी लोभ के
कितनी मीठी नींद सो जाते हो


★★★★★
आदरणीय सुबोध सिन्हा

सुलगते हैं कई बदन

हम जलती हैं

दो शहरों या गाँवों को

जोड़ती सड़कों के

किनारे किसी ढाबे में

जलने वाले चूल्हे की तरह

अनवरत दिन-रात
जलती-सुलगती
और वो किसी
संभ्रांत परिवार की
रसोईघर में जलने वाले
दिनचर्या के अनुसार
नियत समय या समय-समय पर
पर जलती दोनों ही हैं
हम वेश्याएँ और ब्याहताएँ भी
ठीक किसी जलते-सुलगते
चूल्हे की तरह ही साहिब !



लंकादहन बनाम माचिस

दियासलाई बहुत काम की चीज है। इसके बिना आग जलाना संभव नहीं है। हालांकि अब आग जलाने के लिए अच्छे लाईटर भी उपलब्ध हैं। लेकिन ग्रामीण चूल्हे पर लकड़ी जलाने के लिए आज भी दियासलाई का ही प्रयोग किया जाता है। या फिर मंदिर का दिया और मज़ार की अगरबत्ती जलाने के लिए भी इसी को प्रयोग में लाते हैं। और हाँ ... श्मशान में भी। है ना !?  छोटी सी डिबिया, जिनमें नन्हीं-नन्हीं तीलियाँ। आज भी दियासलाई काफी सस्ती आती है और यह लाइटर से तो बहुत ही सस्ती आती हैं। इस वजह से दियासलाई का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है।


★★★★★★★

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हमक़दम का अगला विषय
जानने के लिए
कल का अंक पढ़ना न भूलेंं।









13 टिप्‍पणियां:

  1. भूख के एहसास पर
    आदिम युग से
    सभ्यताओं के पनपने के पूर्व
    अनवरत,अविराम
    जलते चूल्हे...
    जिस पर खदकती रहती हैं
    अतृप्त पेट के लिए
    आशाओं और सपनों की भात,
    जलते चूल्हों के
    आश्वासन पर
    शानदार लेखन..
    साधुवाद..
    सादर.

    जवाब देंहटाएं
  2. बेजोड़ भूमिका के संग सराहनीय प्रस्तुतीकरण

    सदा स्वस्थ्य रहें

    जवाब देंहटाएं
  3. स्वेता जी नमन सुन्दर संकलन चूल्हा और चूल्हे में जलती अग्नि ,चूल्हा में आग जलती है जब तब पेट की आग बुझती है । सभी रचनाएं सर्वोत्तम ।
    धन्यवाद मेरे द्वारा लिखित रचना को अपने लिंक में स्थान देने के लिए

    जवाब देंहटाएं
  4. " बुझे चूल्हे बहुत रूलाते हैं " - जैसी पंक्तियों से गुँथी रचना के आगाज़ संग चंद कालजयी रचनाओं से सुसज्जित हमक़दम अंक के आज की कई अन्य इंद्रधनुषी रचनाओं वाली चौंकाती प्रस्तुति के साथ मेरी रचना/विचार को साझा करने के लिए आपका आभार ...

    जवाब देंहटाएं
  5. हम कदम की उम्दा लिंक्स|मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद श्वेता जी |

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह!श्वेता ,बहुत खूबसूरत भूमिका संग सुंदर प्रस्तुति । मेरी रचना को स्थान देने हेतु धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  7. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार सखी 🌹🌹

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुन्दर सूत्रों से सुसज्जित आज का संकलन ! मेरी रचना को इसमें स्थान दिया, आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे सखी !

    जवाब देंहटाएं
  9. हमकदम का लाज़बाब अंक ,बेहतरीन प्रस्तुति श्वेता जी ,सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं एवं सादर नमस्कार

    जवाब देंहटाएं
  10. बुझी आग के राख में
    उड़ती है
    पीढ़ियों की लोककथाएँ
    बुझे चूल्हे बहुत रूलाते हैं
    स्मरण करवाते हैं
    जीवन का सत्य .....सुंदर भूमिका से सजा संकलन।

    जवाब देंहटाएं

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