हमक़दम के संदर्भ में।
इस बार का विषय है
दीवाली
और रचनाएँ संपर्क फॉर्म की बजाय
यशोदा दी के ई-मेल पर भेजनी है।
मेल आई डी दाहिनी ओर है
★★★★★★
फेसबुक से एक तस्वीर मुझे मिली है
आप भी देखिये और अगर संभव हो तो
इस तस्वीर के संदर्भ में अपने विचार अवश्य लिखें-
★★★
चाँँद के विविध रुपों का अद्भुत काव्यात्मक सृजन
करवा चौथ का चाँद
टप टप टपकते मेह सा
सिला सा -अधजगा सा
तन्हाई में लिपटा
धीरे धीरे दस्तक देता रहा
नज़रो से बरसता रहा
★★★★★★
एक बेहद शानदार गज़ल
जीवन-संगिनी की खूबसूरत व्याख्या
आँखो मे नए सपने सजाए
तुम संग आई ,तुम्हारे घर सजना ।
सामाजिक बंधन रीति रिवाज़ों में
तुम्हारी जीवनसाथी ,तुम्हारी अर्धांगिनी ।
अर्धागिनी.....अर्थ क्या....
अपना घर छोड़ के आने से
तुम्हारे घर तक आने का सफर
बन गया हमारा घर...
बचत
एक दार्शनिक रचना जीवन का सत्य।
जिन्दा जड़ें
सामान्य से हटकर
प्रेरित करता है।
यार ! तू राजनेता है कोई जनेऊधारी जो
इफ़्तार में टोपी पहन रोज़ा बिना किए
रोज़ा तोड़ने अक़्सर पहुँच जाता
या फिर कोई राष्ट्रनेता जो अलग-अलग
राज्यों में .. संस्कृतियों में ..
कभी पगड़ी, कभी मुरेठा, कभी टोपी
तो कभी पजामा, कभी लुंगी , कभी धोती से
भीड़ और कैमरे के समक्ष खुद को है सजाता
या कोई है तू अवार्ड मिला सफल अभिनेता
जो हर किरदार में क्षण भर में है ढल जाता
या फिर कोई किसी मुहल्ले-शहर की गली-गली में
चौक-चौराहों ... फुटपाथों पर ..
★★★★★★
कृत्रिम बुद्धि (एआई) का दायरा विवादित है: क्यूंकि मशीनें तेजी से सक्षम हो रहे हैं, जिन कार्यों के लिए पहले मानते थे कि होशियारी चाहिए, अब वह कार्य "कृत्रिम होशियारी" के दायरे में नहीं आते। उद्धाहरण के लिए, लिखे हुए शब्दों को पहचानने में अब मशीन इतने सक्षम हो चुके हैं, की इसे अब होशियारी नहीं मानी जाती.आज कल, एआई के दायरे में आने वाले कार्य हैं, इंसानी वाणी को समझना. शतरंज के खेल में माहिर इंसानों से भी तेज, बिना इंसानी सहारे के गाड़ी खुद चलाना आदि.
★★★★★★
आज का यह आपको कैसा लगा?
आप सभी की प्रतिक्रियाओं की सदैव
प्रतीक्षा रहती है।
कल का अंक पढ़ना न भूलें
कल आ रही है विभा दी
एक विशेष प्रस्तुति के साथ।
#श्वेता
सदाबहार प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंकृत्रिम बुद्धि (एआई) का दायरा विवादित है
सादर...
बेहतरीन संकलन ,
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार
लाजवाब प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बेहतरीन प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंभूमिका में दी गई फ़ोटो लंबे अर्से से सोशल मीडिया पर देखी जा रही है...
जब देश में हिंदी साहित्य किलो के हिसाब से बेचा जा रहा है तो हमें समझ जाना चाहिए कि साहित्य में वजन कम हो रहा है और धरती पर इसका बोझ बढ़ रहा है।
क्या यह हम जैसे स्वनामधन्य साहित्यकारों के लिए चेतने
का समय नहीं है।
चर्चा में इसे लाने के लिए शुक्रिया।
अब समय आ गया है कि एक शब्द लिखने से पहले हम हज़ार शब्द पढ़ें, गुनें तब लिखें तभी शायद हिंदी साहित्य का मात्रात्मक बोझ कम हो सके।
मेरी रचना को प्रस्तुति में स्थान देने के लिए आभार।
सादर
150 रु किलो
हटाएंकई साल पहले भी देखी थी
अब तक वही रेट है
ज़रा भी कम नहीं हुई
अभी दीपावली का समय है
रायपुर में भी मिल जाना जाहिए
पता करते हैं
कबाडियों की दुकानों पर
सादर..
बहुत सुंदर प्रस्तुति.मुझे भी शामिल करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंसुंदर अंक
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह!!श्वेता ,बेहतरीन प्रस्तुति । भूमिका में दी गई तस्वी काफी समय से सोशल मीडिया पर इधर से उधर घूमती नजर आ रही है । लोग बिना सोचे समझे शेयर भी करते जा रहे है ...। वैसे मुझे अपनी हिंदी और हिंदी साहित्य पर गर्व है
जवाब देंहटाएंबहुत खूब रचनाएं.. ...सभी को शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंऐसी स्तिथि का एक महत्वपूर्ण कारण ये है कि गली में कंकड़ उठा के मारो तो एक तथाकथित हिंदी साहित्यकार को जाकर लगता है।
जवाब देंहटाएंहालांकि ये तथाकथित साहित्यकार घमंडी से होते हैं लेकिन इनकी लेखनी कॉपी पेस्टिये जैसी होती है बेहद उबाऊ या निचले स्तर की...ऊपर से ये अपनी किताबें भी छपवा लेते हैं... किताबों में रचनाएं ऐसी कि अच्छे लेखक जिन्हें लिखकर अपने डस्टबिन में डाल देते हैं।
हमें अगर अच्छा साहित्य बनाना है तो इसमें यूनिकनेस लानी होगी।
घिसे पिटे विचारों को छपवाने की बजाए हम रहने ही दें... हिंदी साहित्य हमारा अहसान कभी नहीं भूलेगी।
तब पक्का एक दिन आएगा कि ये अमूल्य हो जाएगी।
लिखने के लिए तथाकथित परिमार्जित साहित्यकार होना आवश्यक है क्या ?
हटाएंकुछ लोग स्वान्तः सुखाय के लिए भी तो लिखते ही हैं ना ?
घिसे-पिटे विचारों से हट कर सोचेंगें और लिखेंगे, भले ही वह स्वान्तः सुखाय हो , बुद्धिजीवियों को पीड़ा होती है।
जहाँ लोग गुट, सम्प्रदाय, जाति, धर्म की अलग -अलग दरबे में बंद हों, वहाँ निष्पक्ष खुली छत्त की कल्पना भी बेमानी है।
एक ये भी कारण है कि हम आमजन से जुड़ने की कोशिश कम करते हैं, बल्कि हम साहित्यकार की परिधि में ही घुमते रहते हैं। बंद कमरे में या मंच पर विमोचन या अवार्ड को हम अपनी उपलब्धि माने बैठे हैं। जिस दिन आमजन का मन रचना से जुड़े और किसी एक आमजन (वाह वाह/लाइक/स्माइली से परे ) की भी रचनानुसार मानसिकता को बदले या रूमानी अनुभूति करा दे तो तथाकथित साहित्य की सफलता होगी।
हमारी रचना आमजन तक पहुँचे, इसके लिए यत्न करना ही होगा। हम ही लिखे और हमारे जैसे लिखने वाले लोग पढ़े भी , उनमे से कुछ पढ़े ... कुछ गुटबाजी में एक दूसरे को नीचा और खुद को सर्वोपरि साबित करते रहें तो क्या होगा भला ...
आमजन तक तो जाना ही होगा ...लाइक/कमेंट की परिधि से परे निकलना ही होगा ...
बेहतरीन संकलन मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार...!!
जवाब देंहटाएंइस नायाब संकलन में मेरी रचना को साझा करने के लिए आभार आपका ...
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