सादर अभिवादन
आज मैं पलट रही थी
अपनी डायरी के पन्नें
दो पंक्तियाँ सोची लिख देती हूँ यहां पर
जिन्हें गुस्सा आता है वो लोग सच्चे होते हैं ,
मैंने झूठों को अक्सर मुस्कुराते हुए देखा है …… !!!
अब चलते हैं आज क्या चुना है ब्लॉग-बागीचे से...
पहली बार...
गहन निद्रा में डूबते ही मैंने देखा स्वप्न! देखा कि मैं अनुवाद कर रहा हूँ, वह भी संस्कृत से। संस्कृत, जिससे मेरी कभी मित्रता हुई नहीं। पिताजी जीवन-भर ललकारते ही रहे--'आओ, बैठो मेरे पास, संस्कृत, बांग्ला और गुजराती-- ये तीन भाषाएँ सीख लो।' और हम थे कि भागे-भागे फिरते थे। लेकिन परमाश्चर्य, स्वप्न में मैं क्षिप्र गति से कर रहा था वाल्मीकीय रामायण का हिंदी-अनुवाद। तभी स्वप्न में एक नये पात्र का आविर्भाव हुआ। वह विश्वविद्यालय से प्रायः घर आने वाली कन्या है, जो पिताजी की कहानियों पर शोध-कार्य कर रही है। वह सुघड़ और दक्ष है, त्वरित गति से काम करती है। मैं आग्रहपूर्वक उसे अपने साथ पकड़ बिठाता हूँ। अब मैं अनुवाद बोलकर लिखवा रहा हूँ उसे।
शोधकर्त्री कन्या अचानक कहती है--'कम्प्यूटर पर और तेजी से काम होगा अंकलजी! उसी पर करूँ क्या?'....मेरी स्वीकृति पाकर वह कम्प्यूटर पर बैठ जाती है। मैं धारा प्रवाह अनुवाद बोलता जाता हूँ और वह टाइप करती जाती है।
मैं काम करता हूँ जनता के बीच
प्यार करता हूँ जनता से,
कार्रवाई से,
विचार से,
संघर्ष से.
तुम एक शख़्सियत हो मेरे संघर्ष में,
मैं तुम से प्यार करता हूँ।
आज हालात इस प्रकार के हो गए हैं देश में कि जैसे इंसान को एक चींटी काट खाये तो वो उसे हटा सकता है , अगर दो-चार चींटियां एक साथ काट लें तो भी वो उसे सघन प्रयासों से हटाकर राहत महसूस कर सकता है , लेकिन अगर हज़ारों चींटियां एक साथ आकर इंसान के शरीर पर काटने लगें तो मित्रो चाहे कितना भी ताकतवर इंसान चाहे क्यों ना हो , वो बच नहीं सकता जब तलक कोई बाहरी ताक़त उसकी मदद ना करे !या कोई "जहरी छिड़काव"ना किया जाए !
थोथी सियासत ने
जान डाली सांसत में
अब तो उसके भी
लाले पड़ गए हैं
ज़िन्दगी को जब ज़रूरत
उजियारे दिन की आ पड़ी,
लपलपायीं रात में बिजलियाँ
गरजकर काले बादल छा गए।
भोपाल उत्सव मेले की रंगत में.......कविता रावत
गांव में भले ही दिन में मेले लगते हैं, लेकिन शहर में अधिकांश मेले रात को ही लगते हैं, क्योंकि रात को बिजली की आकर्षक साज-सज्जा से मेले की रौनक दोगुनी बढ़ जाती है। हमारे घर से दशहरा मैदान की दूरी लगभग 1 कि.मी. होगी, इसलिए हम सायं 7 बजे घर से पैदल मार्च करते हुए रंग-बिरंगी रोशनी में नहाये दशहरा मैदान पहुंचे तो लगा शहर में जैसे वसंत आ गया हो।
मानवीय प्रतिरक्षा शक्ति.........सतीश सक्सेना
मेरा यह दृढ विश्वास है कि मानव शरीर लगभग 100 वर्ष जीने के लिए डिज़ायन किया हुआ है , और इसके लिए इसे किसी दवा, गोली या डॉक्टर की आवश्यकता नहीं होती बशर्ते हम इसके साथ अत्याचार न करें !
मानव लगभग एक लाख वर्ष से इस धरती पर है और इसने लगभग दस हज़ार वर्ष पहले सामाजिक ढर्रे में जीने का प्रयत्न शुरू कर दिया था ! उस वक्त हम लोग पानी के किनारे किसी गुफा में छिपकर रहना सीखे थे , जहाँ रोज भोजन के इंतज़ाम के लिए लगभग 10 किलोमीटर रोज शिकार के पीछे दौड़ना अथवा खूंखार जानवरों से जान बचाने के लिए भागना पड़ता था तब कहीं परिवार के लिए एक दिन के खाने का इंतज़ाम हो पाता था
कुछ नहीं कर
सकता है “उलूक”
देख कर किसी
का करना या
नहीं करना
जमाना जब
बदल चुका है
अपने रास्ते
खुद ही कई
उस जगह जहाँ
कफन भी सिले
सिलाये मिलने
लगे हैं और
जेब भी दिखती हैं
उसमें कई सारी
यहां तक बटन
तक जिनमें
अब कई सारे
लगाये जाते हैं ।
....
सुन्दर संकलन से सजा पांच लिंको का आनंद का बग़ीचा वैचारिक ताज़गी की मोहक खुशबू बिखेर रहा है. मेरी रचना में आवश्यक संशोधन और चित्र सजाने के लिये हार्दिक आभार.
जवाब देंहटाएंढ़ेरों आशीष व असीम शुभकामनाओं के संग शुभ दिवस छोटी बहना 🌹🌹
जवाब देंहटाएंउम्दा लिंक्स चयन
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
सादर
निखरी हुई हलचल। आभार 'उलूक' का सूत्र 'समझदार लोग़ मील के पत्थरों को हटाते हुऐ ही आगे जाते हैं' को शीर्षक पर जगह देने के लिये ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंशुभप्रभात।
जवाब देंहटाएंसुंदर संकलन....
उम्दा हलचल आज की |मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंसुन्दर हलचल सुन्दर लिंकों के साथ।
जवाब देंहटाएंआभार आपका ...
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