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सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

584....रात का गंजा दिन का अंधा ‘उलूक’ बस रायता फैला रखा है

सादर अभिवादन
आज से ठीक सोलहवें दिन
यानि कि छः सौवीं प्रस्तुति
आपको आश्चर्यचकित कर देगी
राज़ को राज़ ही रहने देती हूँ अभी

फिलहाल चलिए चलते हैं आज के अंक की ओर..



मेरी छत की छोटी सी मुंडेर पर.....अर्चना
हर सुबह
महफ़िल है 
जुड़ जाती 
दाने खाने की
खातिर परिंदों
की जब टोलियाँ  
हैं आती
चिड़ियाँ आातीं 
दाना खातीं
फुदक -फुदक 
फिर गाना भी
गातीं लगती हैं 



क्वांरेपन से शेर है, रविकर अति खूंखार ।
किन्तु हुआ अब पालतू, दुर्गा हुई सवार।।

जब मैं काफी दिमाग लगाकर खुद से यह उत्तर पाने की कोशिश करती हूं कि आखिर नए कपड़ों को पुराने करने की जुर्रत मैं क्यों करती हूं तो एक ही जवाब मिलता है –ताकि मैं चिकोटी काटने वालों या-अच्छा जी आज नए कपड़े क्या बात है-कहकर बगल से गुजर जाने वालों को पेट दर्द जैसा अपना चेहरा बनाकर कह सकूं-नए कहां हैं, पुराने ही तो हैं। जाने क्यों बड़ी लाज आती है जी नए कपड़ो में।



माँ मुझको तुम अंक में ले लो
स्नेह फुहार से मुझे भिंगो दो
जब भी मुझको भूख लगे माँ
सीने से मुझको लगा लो

मेरा खून धरती से मिल गया है
और सफेद रंग 
गर्भ में ठहर गया है,
शोषण के गर्भ में
उभार आते
मैं धँसती जा रही हूँ
भींगी जमीन में,
और याद आ रही है
माँ की बातें

लेकिन
अज़ल से अबद तक
यही रिवायत है-
ज़िन्दगी की हथेली पर 
मौत की लकीरें हैं...
और 
सतरंगी ख़्वाबों की
स्याह ताबीरें हैं


जोर से 
खींचना 
ठीक नहीं 
गालियाँ 
खायेंगे 
गालियाँ 
खाने वाले 
कह कर 
दिन की 
अंधी एक 
रात की 
चिड़िया को 
सरे आम 
गंजा बना 
रखा है। 









2 टिप्‍पणियां:

  1. ढ़ेरों आशीष व असीम शुभकामनाओं संग शुभ दिवस छोटी बहना
    उम्दा प्रस्तुतीकरण
    इंतज़ार शुरू

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर सोमवारीय अंक। आभार यशोदा जी 'उलूक' के सूत्र को शीर्षक पर जगह देने के लिये।

    जवाब देंहटाएं

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