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मंगलवार, 22 मार्च 2016

249...आओ शिकवे-गिले मिटायें, प्रीत बढ़ाएँ होली में।।

जय मां हाटेशवरी...

सरस्वती माँ की रहे, सब पर कृपा अपार।
हास्य-व्यंग्य अनुरक्त हो, होली का त्यौहार।
फागुन और बसंत मिल, करें हास-परिहास।
उनको हंसता देखकर, पतझर हुआ उदास।
होली अब के बार की, ऐसी कर दे राम।
गलबहिंया डाले मिलें, ग़ालिब अरु घनश्याम।
तन-मन को निर्मल करे, रंग-बिरंगी धार।
लाया नव-उल्लास को, होली का त्यौहार।
होली तो आज से दो दिन बाद है...
पर मेरे साथ तो होली आज ही मनानी पड़ेगी...
नाच उठा आकाश भी, ऐसा उड़ा अबीर।
ताज नशे में झूमता,यमुना जी के तीर।
 होली के दिन भूलिए… भेदभाव अभिमान !
रामायण से मिल’ गले मुस्काए कुरआन !
गहरे रंगों से रँगी, भीगा सारा अंग।
एक रंग ऐसा लगा, छोड़ न पाई संग।
विजया सर चढ़ बोलती, तन मन हुआ अनंग।
चंग संग थिरके क़दम, उठने लगी तरंग।
औरत की क्या हस्ती है?
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कहीं वो घर की दासी है
नदिया हो कर प्यासी है
सब के ताने सहती है
फिर भी वो चुप रहती है
सरस्वती का अवतार है वो
शिक्षा का भंडार है वो

इक तो वो मादक बदन, दूजे ये बौछार।
क्यों ना चलता साल भर, होली का त्यौहार।
थोड़ी-थोड़ी मस्तियाँ, थोड़ा मान-गुमान।
होली पर 'साहिल' मियाँ, रखना मन का ध्यान।
 
दैनिक नवज्योति' हिन्दी समाचार पत्र (राजस्थान) का अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर शर्मनाक कारनामा
इसीलिए इसके संपादक या संबंधित पेज  के संयोजक ने मेहनत करने की बजाय इसे सीधे कट-पेस्ट कर दूसरों  के नाम से प्रकाशित कर दिया। वाह रे ''अंतर्राष्ट्रीय महिला
दिवस'' मनाने का अखबारी और कागजी जज्बा।
समाचार पत्र का इतिहास खंगाला तो पता चला कि राजस्थान के स्वाधीनता सेनानी कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी जी  द्वारा संस्थापित दैनिक नवज्योति जयपुर, जोधपुर, अजमेर
और कोटा, राजस्थान से प्रकाशित होने वाला एक दैनिक हिन्दी समाचार पत्र है। इसका प्रथम संस्करण 1936  में प्रकाशित हुआ था। ...... पता नहीं अब यह दैनिक समाचार
पत्र कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी जी की परम्परा को छोड़कर इस प्रकार की साहित्यिक और लेखकीय चौर्य वृत्ति को क्यों प्रवृत्त कर रहा है।  नाम तो नव ''ज्योति' पर
दीपक तले अँधेरा वाली कहावत पूरी चरितार्थ कर रहा है।

महँगाई ने सोख ली, पिचकारी की धार।
गुझिया मुँह बिचका रही, फीका है त्यौहार।
धूप खिली, छत, खेलती, अल्हड़ खोले केश।
इस फागुन फिर रह गये, बचपन के अवशेष।

चकित हूँ
किन्तु सोते मनुज को यह ज्ञान भी है ?
काल का आवेग, ताण्डव नृत्य क्या है ?
बँधा है, असहाय जीवन जी रहा है,
काटने का बन्धनों को कृत्य क्या है ।।
दुख भीषण है, जगत में क्षणिक सुख है,
चकित हूँ, क्योंकि,
मनुज तो बँधा रहना चाहता है ।।

नेताओं ने पी  रखी, जाने कैसी भंग।
मुश्किल है पहचानना, सब चहरे बदरंग।
योगी तो भोगी हुए, संसारी सब संत।
जिनकी कुटियों में रहे, पूरे बरस बसंत।
कैसी थीं वो होलियाँ, कैसे थे अहसास।
ज़ख़्मी है अब आस्था, टूट गए विशवास।
माइनस इनफिनिटी....
प्रेम इन्फाईनाईट की तरह है,
चाहे तो किसी से जोड़ लो, घटा लो
गुना करो, चाहे तो भाग लगा लो,
आगे माइनस लगा के
चाहो तो माइनस इनफ़िनिटी कर लो,
लेकिन वो वैसे ही बना रहेगा
उसी अभेद्यता के साथ,
जैसे मिले हुये हों
दो शून्य आपस में
सदा सदा के लिए...

नयन हमारे नम हुए, गाँव आ गया याद।
वो होली की मस्तियाँ,  कीचड़ वाला नाद।
कलियों के संकोच से, फागुन हुआ अधीर।
वन-उपवन के भाल पर, मलता गया अबीर।
21 मार्च 2016 .....
नजरों से  नजरें चुराते है वो
यूँ ही दिल में बस जाते है वो
न कुछ  हारते हैं ,न जीतते है
प्यार ही प्यार में जिये जाते हैं  .....

 होली में जलता जिया, बालम हैं परदेश।
मोबाइल स्विच-ऑफ है, कैसे दूँ संदेश।
भोर हुई कब की, मगर, बोल रहा ना काग।
बिन सजना इस बार भी, 'फाग' लगेगा 'नाग'।
कुंजगली में जा छुपे, नटखट मदन गुपाल।
ब्रजबाला बच के चली, फिर भी हो गइ लाल।
मने प्रीत का पर्व ये, सद्‌भावों के साथ।
दो ऐसा सन्देश अब, तने गर्व से माथ।
ढपोरशंख
दल बदलू और स्वार्थ परक ये, अपनो को ही मारे डंक,
लाभ के लिए कुछ भी कर दें, हो गए ये ढपोरशंख ।
होली तो इनकी ही हो ली, इनकी ही होती है दीवाली,
असली पैसों से ये खेले, पर सारे हैं लोग ये जाली ।

रंगों के सँग घोलकर, कुछ, टूटे-संवाद।
ऐसी होली खेलिए, बरसों आए याद।
जाकर यूँ सब से मिलो, जैसे मिलते रंग।
केवल प्रियजन ही नहीं, दुश्मन भी हों दंग।
आओ शिकवे-गिले मिटायें, प्रीत बढ़ाएँ होली में।।
शक्ति असीमित भरी हुई है प्रभू नाम की माला में,
प्यार भरा आशीष निहित है, अक्षत्-चन्दन रोली में।
आओ शिकवे-गिले मिटायें, प्रीत बढ़ाएँ होली में।।

जम कर होली खेलिए, बिछा रंग की सेज।
जात धरम ना रंग का, फिर किसलिए गुरेज।
पल भर हजरत भूल कर, दुःख,पीड़ा,संताप।
जरा नोश फरमाइए, नशा ख़ुशी का आप।
अबके कुछ ऐसा करो, होली पर भगवान।
हर भूखे के थाल में, भर दो सब पकवान।
अब चलते-चलते...
हिरण्यकश्यप मार कर, करी धर्म की जीत।
हे नरसिँह कब आउगे, जनता है भयभीत।
ऐसी होली खेलिये, जरै त्रिविधि संताप।
परमानन्द प्रतीति हो, ह्रदय बसें प्रभु आप ।
’हो ली’, ’हो ली’ सब करें, मरम न जाने कोय।
क्या हो ली क्या ना हुई, मैं समझाऊँ तोय।
हो ली पूजा हस्ति की, माया जी के राज।
हाथी पे परदे पड़े, बिगड़ गए सब काज।
ऊपरोक्त सभी दोहे...
साहित्यम् - Join..से...
आप सभी को रंग पर्व होली की अग्रिम शुभकामनायें।
"दूरियाँ दिल की मिटें, हर कहीं अनुराग हो।
न द्वेष हो, न राग हो,ऐसा यहाँ पर फाग हो।।"

धन्यवाद।









6 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक लिंक।
    सभी पाठकों और मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।

    जवाब देंहटाएं
  2. सभी उम्दा लिंक्स, इनके बीच मेरी रचना को स्थान देने का आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  3. सभी उम्दा लिंक्स, इनके बीच मेरी रचना को स्थान देने का आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  5. अभी अन्तर्जाल महोदय प्रकट हुए हैँ
    सब उसी के गुलाम तो हैं
    सही सटीक रचनाओं का चयन
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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