जाने कहाँ है गुम
पसरा तम !
गिरीश पंकज में...गिरीश पंकज
झांसे का दूसरा नाम बजट
पिछले दिनों वित्त मंत्री मिल ही गए, सपने में. वैसे तो मिलने से रहे.
जिनके पास भरी-भरकम वित्त होता है, वही वित्त मंत्री से मिल सकता है.
खैर, सपने में मुलाकात हो गई। हमने कहा- ''ई का तमाशा है। बजट है या झांसा है?''
वित्तमंत्री हँसे और बोले- ''ऐसा है भोले, बर्फ के गोले, झाँसे का दूसरा नाम ही बजट होता है. बजट में हम ऊंची -ऊंची फेंकते है, जिसे लपेट पाना मुश्किल हो जाता है. जैसे हम कहेंगे 'पांच साल बाद महंगाई ख़त्म', 'किसानो की आय दोगुनी हो जाएगी', 'देश का कालाधन वापस आ जाएगा'। बस, देश की जनता कर का भार अपने करों से उठा ले. जनता को लगता है वित्त मंत्री कह रहा है तो ठीक ही कह रहा होगा. बेचारी चुप कर जाती हैं, हम उसके गम को गलत करने बीड़ी से कर हटा लेते हैं. सोने-चांदी पर बढ़ा देते हैं। जनता को दुःख भरी जिंदगी से मुक्ति हम जहर को कर मुक्त कर देते हैं.''
ये आपके समक्ष शीर्षक रचना का अंश
बावरा मन में...सु-मन
सोच से हदें तय हुई या हदों से सोच
कौन जाने ...जाना तो इतना कि
हदों की खूँटी पर टंगे रहते हैं वजूद के लिबास
और सोंच के ज़िस्म पर पहनाई जाती हों कुछ बेड़ियाँ
आज्ञा दें..
मार्च का महीना ज़रा भारी पड़ता है
सब ऑनलाईन हो गया है फिर भी
दिग्विजय
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंआभार
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिंको का संयोजन
बढ़िया प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंशुभप्रभात...
जवाब देंहटाएंसुंदर अति सुंदर...
आभार।
बहुत अच्छी कड़ियाँ मिलीं। मेरी ग़ज़ल शामिल करने के लिए शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार!