सर्वप्रथम आप सभी का स्वागत है।...
मैं कुलदीप ठाकुर...
पुनः उपस्थित हूं...
बढ़ गया था प्यास का एहसास दरिया देख कर
हम पलट आये मगर पानी को प्यासा देख कर
हम भी हैं शायद किसी भटकती हुई कश्ती के लोग
चीखने लगते है ख्वाबो में जजीरा देख कर
जिस की जितनी हैसियत है उसके नाम उतना खुलूस
भीख देते हैं यहाँ के लोग कासा देख कर
मांगते हैं भीख अब अपने मुहल्लो में फकीर
भूख भी मोहतात हो जाती है खतरा देख कर
ख़ुदकुशी लिखी थी एक बेवा के चेहरे पर मगर
फिर वो जिन्दा हो गयी बच्चा बिलखता देख कर ......
“अविभाज्य बिंदु”
वह अविभाज्य बिंदु
जो रोक पता
गर्भ में स्वछन्द तैरती आशाओं को ; मिटने से
इससे पहले की बिओप्सी की तीखी सलाई
भेद कर स्पष्ट कर देती उनके स्त्री/पुरुष होने का भविष्य,
और यही
उनके लिए अभिशाप बन जाता |
वह अविभाज्य बिंदु
जो वास्तव में मानवता के वृत्त का केंद्र है
जिसकी परिधि से अपना अर्धव्यास पूर्ण कर
स्त्रियां तो केंद्र पर आ चुकी
मगर कहीं न कहीं अपने हिस्से का अर्धव्यास
क्यों पुरुष आज तक पूरा नही कर पाया |
जिंदगी हमसे मिली रेलगाड़ी में
जिंदगी हमसे मिली थी
रेलगाड़ी में
बोझ काँधे पर उठाये
क्षीण साडी में.
कोच में फैला हुआ
कचरा उठाती है
हेय नजरें झिड़कियां
दुत्कार पाती है.
एक फोजी की होली
राह तुम मेरी न देखना
इन्तजार मेरा ना करना
मुझे पता है तुम रो रही हो
डबडबाई आँखों से
बहुत कुछ कह रही हो
अरे तुम फौजी की पत्नी हो
मुझ से भी जांबाज
विचलित क्यूं हो रही हो
तुम ही दिखते हो......
देखना हो खुद को
मुझमें देख लिया करो
चेहरे की हर रेखाओं में
अब तुम ही दिखते हो.......
ज़िन्दगी है दाँव पर --- नवगीत
हादसों में गीत
बनते बोल ,
चढ़े पशुओं के बदन पर
सभ्यता के खोल ;
दलदली है ,
किन्तु जादू की नदी है
ये सदी
आँख में है ...
अब फागुन के दिन हैं सताने लगे हैं
हम से मिलना उन्हें ख़ुश करता बहुत है
बिना पूछे ऐसा वह सब को बताने लगे हैं
किनारे नहीं बीच धारे मिल कर भी वह
बीच रास्ते अनायास अचकचाने लगे हैं
समय ही समय था जब मिलते थे पहले
जाने क्यों वह अब जल्दी घर जाने लगे हैं
किसी की वेदना के साथ,मन में वेदना तो हो - सतीश सक्सेना
भले विश्वास ईश्वर पर न हो,पर भावना तो हो !
वहां पर सर झुके या न झुके पर चेतना तो हो !
अगर गुज़रें कभी मस्जिद या देवस्थान के आगे,
भले घुटनों पे न बैठें ,मगर शुभकामना तो हो !
हजारों बार गप्पे मारते , शमशान हो आये,
किसी का पुत्र कंधे पर हो, अंतर्वेदना तो हो
उत्सवकाल
ये आज की स्त्री की गौरवमयी गाथा है
स्वीकारनी तो पड़ेगी ही
फिर माथा नवाकर स्वीकारो या हलक में ऊंगली डलवाकर ......निर्णय तुम्हारा है
देश से कोई भी बड़ा नहीं
देश किसका नहीं है
या यूं कहूँ देश किसका है
ये कहाँ तय होगा
विस्वविद्यालयों मे तो कदापि नहीं
शिक्षा अगर राजनीति का आखाडा बन गई
तो विद्यार्थी पहलवान तो बन जाएंगे
मगर किसी कुस्ती मे मारे जाएंगे
सबके होते है अपने आदर्श , विद्यार्थियों के तो जरूर होंगे
आक्रोश और क्रांति की राह
आदर्श तो नहीं हो सकती
ऐक स्वतंत्र रास्ट्र की अस्मिता पर प्रशन
ये क्रांति नही हो सकती
गरीब दूर तक चलता है .. खाना खाने के लिए...
अमीर दूर तक चलता है...खाना पचाने के लिए.....
किसी के पास खाने के लिए .. एक वक़्त की रोटी नहीं है...
किसी के पास खाने के लिए वक़्त ही नहीं है...
कोई अपनों के लिए ...रोटी छोड़ देता है....
कोई रोटी के लिए... अपनों को ही छोड़ देता है...
धन्यवाद।




शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंमन से बनाई आज की प्रस्तुति आपने
अंत में मन ये भी कहता होगा बस
ये अंतिम रचना और ले लूँ...
अच्छी लगी आज का प्रस्तुति
सादर
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति
मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार
सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार !
अच्छे लिंक मिले , रचना शामिल करने के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंबढ़िया हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंBahut badhiya prastuti...meri rachna shamil karne ke liye aapka dhnyawad
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कुलदीप जी | शानदार प्रयास है | बधाई |
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कुलदीप जी |
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