करे भी तो क्या करे..मन व्यथित है..
और आज एक दोषी और रिहा होगा
.....ये तो पुरातन काल से होता चला आ रहा है
बेचैन आत्मा में..
पढ़ लिख कर
होशियार हो गई थी मेरी बेटी
नौकरी करने गई थी
देश की राजधानी में
पापियों ने
बलात्कार कर दिया
मार दिया जान से
तुम कहते हो
नहीं होगी सजा
नाबालिग थे हत्यारे!
बलात्कार करने वाला बालिग ही हुआ न ?
रिदम में..
मुझे सुनाई देती हैंआवाज़े
पहाड़ के उस पार की
घाटी में गूंजती सी
मखमली ऊन से हवा
फंदा-दर फंदा
साँस देती हुयी
आवाहन करती हैं
जीने की जदोजहद से निकलने का
कविता रावत में
मैदान का नजारा देखने के लिए पहाड़ पर चढ़ना पड़ता है।
परिश्रम में कोई कमी न हो तो कुछ भी कठिन नहीं होता है।।
एक जगह मछली न मिले तो दूसरी जगह ढूँढ़ना पड़ता है।
उद्यम से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।।
और ये रही आज की अंतिम कड़ी
उन्नयन में
तुम बदल न पाये खुद को
औरों को बार बार कहते हो -
फूटी कौड़ी भी न दे सके
जरूरतमंदों को जनाब
आज्ञा दें यशोदा को
फिर मिलेंगे..
बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा पस्तुति और लिनक्स
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने के लिय हार्दिक शुक्रिया
वाह बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा पस्तुति. आभार!
जवाब देंहटाएं