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मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

4466...एक आस एक विश्वास

मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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बरसों की कठिन 
तपस्या से
धरती को प्राप्त
अनमोल उपहारों का
निर्दयता से प्रयोग करते हैं
अपनी सुविधानुसार,
दूहते...!
कलपती,सिसकती,
दिन-प्रतिदिन
खोखली होती
धरती,
 अपने गर्भ में ही 
मार डाले गये भ्रूणों के
अबोले शाप की अग्नि में
झुलसने से
कब तक बचा पायेगी
मनुष्य का अस्तित्व ...?
"राग-रंग बदला मौसम का
बदले धूप के तेवर
रुई धुन-धुन आसमान के
उड़ गये सभी कलेवर"

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आज की रचनाएँ


किस पर यक़ीन करे जब पड़ौसी ही लूट
ले घर अपना, अपने ही देश में हो
जाएं शरणार्थी, गांव जल रहे
हैं शहर हैं धुआं धुआं,
मानवता का दम
भरने वाले
छुपे बैठे
हैं जाने
कहाँ,




सोई   चेतना   का  जागरण  बाकी   है  काली  
भयंकर   रातों   में   दीप  का  जलना  शेष   है
शेष   है   अभी   जीवन    शेष   है   अभी
जीवन   का   महत्तर   ,  लघुपाद   चलती
तिलतिल   इन    मेहनतकश   चींटियों   को
गौर   से   देखना  ,   उनसे    वो   ज्ञान   लेना
बाकी   है   ,   जो   सतत   अविरत   निश्छल 
निस्वार्थ  भाव  से  कर्म   में  आस्था  जागता  है




ईश का स्वर दिया सुनाई 
माँगने में है नहीं भलाई
सूर्य अपने तन को जलाते 
प्राणी मात्र की सेवा करते।
तेरे पास है जो उत्सर्ग कर
कुछ देने का साहस तो कर


परिवार के सभी सदस्य आ चुके थे बातचीत हँसी फोटो का दौर चल रहा था। नदी किनारे बड़े पत्थर पर बैठें पानी में पैर डालें या बाहर रखें जैसी महत्वपूर्ण चर्चा चल रही थी। सूर्य अस्त नहीं हुआ था बस पहाड़ के पीछे चला गया था। वर पक्ष के मेहमान भी आ चुके थे वे भी नदी को प्रणाम करके फोटो खिंचवा रहे थे। पण्डित जी आरती की तैयारी में लगे थे। तेज हवा में दीपक की लौ का ठहरना मुश्किल था इसलिए रुई की बाती के साथ कपूर डाला गया था।


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आज के लिए इतना ही 
मिलते हैं अगले अंक में।

2 टिप्‍पणियां:

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