।।प्रातःवंदन।।
"और हर सुबह निकलती है
एक ताज़ी वैदिक भोर की तरह
पार करती है
सदियों के अन्तराल और आपात दूरियाँ
अपने उस अर्धांग तक पहुँचने के लिए
जिसके बार बार लौटने की कथाएँ
एक देह से लिपटी हैं..!!"
कुंवर नारायण
प्रकृति संग संवाद और नजर डालें चुनिंदा लिंकों पर...✍️
कंटक मय पथ तेरा ,
सम्भल- सम्भल कर चलना है !
चलन यही दुनिया का,
पत्थर में तुमको ढलना है!!
✨️
दुश्मन मित्र बने बैठे हैं
बाहर वाले लाभ उठाते,
लोभ, मोह से बिंधे यदि जन
बाहर भी निमित्त बन जाते
अब मेरी जरूरत क्या
हो आज़ाद, तुम जाओ
मैं बरबस राह का कांटा
इसे निकाल, तुम जाओ ..
✨️
झुर्री-झुर्री हाथ हुए हैं ,सलवट-सलवट चेहरा
खो ही गया वो नन्हा बच्चा,
बड़ा हुआ था पहन के जो
अरमानों का सेहरा ..
✨️
करुणा और क्रंदन के
गीत यहां आए है
सिसकती हुई सांसे है
रुदन करती मांए है ..
।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️
सुंदर अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
बहुत सुंदर अंक
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति आभार
जवाब देंहटाएंसुप्रभात ! वैदिक भोर के आगमन सी प्रेरणा देती सुंदर भूमिका और सराहनीय लिंक्स का चयन, आभार पम्मी जी।
जवाब देंहटाएंसुन्दर संकलन
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