शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
शुक्रवारीय प्रस्तुति में पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-
पिता दिन में भी खाँसते हैं,
पर रात में ज़्यादा खाँसते हैं,
उन्हें नींद नहीं आती,
पर हम चैन की नींद सोते हैं।
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सुखनवर
द्विमासिक पत्रिका में प्रकाशित आकिब जावेद की ग़ज़लें
सुख़नवर द्विमासिक पत्रिका के जनवरी - फरवरी 2025 के अंक में नामी आदीबों के साथ इस नाचीज़ को जगह देने के लिए संपादक आदरणीय असीम आमगांवी साहब का बहुत बहुत शुक्रिया
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जब रथ पर बैठ गये कान्हा,
दहाड़ मार रोई सिगरी नगरी।
वादा करो आज कान्ह तुम,
फिर कब अइहौ मोरी नगरी।।
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अगर एकलव्य उस समय उस कुत्ते को न मारा होता।
तो फिर उस अर्जुन ने भी उस कर्ण को छल से न मारा होता।
फिर तो उस एकलव्य की वह - वह होती
अगर धोखे से अँगूठा न माँगा होता।
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
सुंदर अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
बहुत सुंदर प्रस्तुतियाँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार
मेरे ब्लॉग (कानूनी ज्ञान) पर आकर "साइबर क्राइम से लड़ें-1930 डायल करें" से जागरूक समाज का हिस्सा बनें - https://shalinikaushikadvocate.blogspot.com/2025/04/1930.html
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जवाब देंहटाएंसुंदर अंक
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
सभी प्रस्तुतियाँ सराहनीय।
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