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शनिवार, 20 अप्रैल 2024

4102 ..ब्लॉग हमारा घर है। लौट के हमें यहीं आना था

 सादर अभिवादन


मधुर तुम इतना ही कर दो !

यदि यह कहते हो मैं गाऊँ,
जलकर भी आनन्द मनाऊँ
इस मिट्टी के पँजर में मत छोटा-सा उर दो !

मधुर तुम इतना ही कर दो!
 
तेरी मधुशाला के भीतर,
मैं ही ख़ाली प्याला लेकर,
बैठा हूँ लज्जा से दबकर,
मैं पी लूँ, मधु न सही, इसमें विष ही भर दो !

मधुर, तुम इतना ही कर दो !
 -गोपाल दास नीरज

आइए देखें कुछ रचनाएं ....



चलन  को पता है
समय की गोद में तपी औरतें
चूड़ी बिछिया पायल टूटने से
खँडहर नहीं बनती




जिस जगह से मैं  गुजरूं ,
वह जगह अपवित्र हो जाता |
जिस कुंआ का पानी मैं पिया ,
वह कुआं का पानी अपवित्र हो जाता |
हर कदम और हर जगह पर ,
छुवा -छूत से लड़ना पड़ता |






दर्द  सारा साथ ले कर सो गए।
नैन में बरसात ले कर सो गए।।

छूट जाये ना तिरी नजदीकियां।
हाथ में हम हाथ ले कर सो गए।।

साथ हमने शब  गुज़ारी जाग के ।
ऊँघती फिर रात ले कर सो गए।।





हम सबको भी हमेशा स्वयं का प्रतियोगी होना चाहिये। 
दूसरों के साथ की गयी तुलना वास्तविक नही है। 
और कई बार यही तुलना हमारे लिये ईर्ष्या बन जाती है। 
स्वयं से की गयी प्रतियोगिता सदैव सकारात्मक परिणाम ही देती है।






लिखना सिर्फ़ ये दिलासा है कि हम अकेले नहीं हैं। 
हम लिखते हैं लेखकों/कवियों का हमें जिलाये रखने का जो क़र्ज़ है, 
उसको थोड़ा-बहुत उतारने के ख़ातिर।

और अपनी कहानियाँ जो सुनाने का मन करता है, सो है ही।

इतने दिन में यही लगता है कि ब्लॉग हमारा घर है। 
लौट के हमें यहीं आना था।

सो, हम आ गए हैं।



आज बस. ...
कल फिर से मैं
सादर वंदन

2 टिप्‍पणियां:

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