मंगलवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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इक गधा इतनी आसानी से
इक इशारे के साथ
घोड़ों को घसीटता
शेर्रों को कुत्ता बना कर लपेटता होगा
‘उलूक’ लिखता होगा
पागलों की किताबें
पागलों के जंगल में बैठ कर
पाठ्यक्रम
अम्बेडकर ने भी तो सोच कर ही दिया होगा
जहाँ पगडंडियाँ भी नहीं थीं,
वहां हमने बना ली हैं सड़कें,
जहाँ चरवाहे भी नहीं जाते थे,
वहां हम मनाने लगे हैं पिकनिक.
चिड़ियाँ चहचहाती थीं जहाँ,
वहां अब गूंजते हैं फ़िल्मी गाने,
खो चुके हैं पहाड़ अब
अपना सारा पहाड़पन.
मुरादें
जैसे सूरज की तपिश को सहकर भी
पेड़ भेजते रहते हैं छाया
धरती की ओर
मुरादें माँगना लेन-देन नहीं,
प्रेम है, जिसे वासना रहित
माँगा गया
मुरादें माँगते वक्त
खिलाते नहीं
नहीं होने देंगे कसक में कमी
घावों को दिल से मिटाते नहीं।
जो बातें हुईं और न होंगी कभी
उन्हें भी कभी भूल पाते नहीं।
भावुक बहुत हैं कृपालु नहीं
कभी भाव अपना गिराते नहीं।
थोड़ा-सा है आसमान थोडी सी ज़मी
खिड़की से बाहर देखने वाले लोग कहाँ चले गए?
सोचती हूँ तो लगता है कि बाहर की ओर कोई देखता कहाँ है। चाँद, सूरज और सूर्यास्त या सूर्योदय की तलाश कौन करता है मेरे सिवा। छत तो आलरेडी ग़ायब हो गई है सब जगह से। छोटे बच्चों के बहुत से कपड़े धोने के बाद उन्हें पसार के सुखाने और उतारने का समय नहीं रहता था। उसपे कई बार बारिश आती थी, इसलिए वॉशर और ड्रायर वाली मशीन ले ली। इस घर में आये इतने महीने हो गए हैं, यहाँ पर कपड़े पसारने का इंतज़ाम नहीं हुआ है। यहाँ छत पर अलगनी है ही नहीं। फिर यहाँ कार्पेंटर बुलाना इतना मुश्किल है कि एक अदद अलगनी लगाने का काम महीनों से नहीं हो पाया है। कल रात कपड़े धोये थे और इतना गर्म मौसम है कि ड्रायर नहीं चलाया। आज बहुत दिन बाद कपड़े पसारे। भोर में छह बजे हवा ठंढी थी। धूप बस निकलने को ही थी। कपड़े पसार कर उन्हें उतारना, तह करना…धूप में सूखे कपड़ों में एक ख़ुशनुमा गंध होती है। जो कि जीवन से चली गई है।
आज के लिए बस इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में।
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सावधान...
जवाब देंहटाएंउलूक जाग रहा है...
दिन में भी
सुंदर अंक
सादर वंदन
आभार श्वेता जी |
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार अंक
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