यथायोग्य आप सभी को
प्रणामाशीष
टहलते छ: साल हो गये यहाँ
सभी से परिचय पुराना है
कैसे कहूं (कहूँ) मैं कौन हूँ
ढलता हूं नित नये आकार में
आयाम बदलता हूं व्यवहार के
जिसने जैसा चाहा
वैसा होता रहा हूं
हां मगर थोड़ा थोड़ा
खोता रहा हूँ
सर्वमान्य सम्पूर्ण होने की चाह में
अधूरा सा होता रहा हूँ
सब सहना है
आप जो भी कहेंगे
आप जो भी करेंगे
लोगों को कुछ न कुछ कहना है
इस दिया में रहना है
घर के बड़े बुजुर्ग
समझाना चाहते है उन्हें
दुनियादारी के तौर तरीके
पर आज की पीढ़ी नहीं लेना चाहती
उनके अनुभव व विचार
जो सिर्फ अपनी ही चलाना चाहते है
लेकिन हमारे पढ़े लिखे होने से दुनियादारी
नहीं चलती
अनुभव का होना बहुत
ज़रूरी है
लघुकथा
"ठीक है, लेकिन यहाँ तक इस कमरतोड़ बोझ को उठाके लाया कौन है?"
"अच्छा, आधे-आधे पर राजी होते हो?"
"ठीक है…खोलो संदूक।"
संदूक खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला।
उसके हाथ में तलवार थी।
उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में बाँट दिया।
अक्षय सुख के विपुल भंडार
फिर मिलेंगे
विभा रानी श्रीवास्तव
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंआदरणीय दीदी
सादर नमन
वाह..आज फिर एक विषय
सादर
बढ़िया चयन।
जवाब देंहटाएंपंकज झा की पंक्तियाँ...
जवाब देंहटाएंसत्य, धर्म, कर्तब्य पालन,पुरुष के पुरुषार्थ से,
समुद्र मंथन और साहस,अहंकार के त्याग से,
सहज स्वक्ष प्रेम स्नेह,भीतर के आवाज(बुद्धि-विवेक) से,
प्रार्थना आशीर्वाद और सहयोग,प्रारव्ध के स्वीकार्य से,
आप हरपल समृद्ध होते है,अक्षय सुख के विपुल भंडार से...
स्वमंथन कराती ये प्रेरक पंक्तियाँ आज की प्रस्तुति को विशेष बनाती है। सुंदर प्रस्तुतिकरण। साधुवाद विभा जी।
बहुत सुंदर लिंकों का चयन प्रेरक रचनाएँ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर लिंक्स....
जवाब देंहटाएंपांच लिंक, पंचामृत की तरह है :-)
जवाब देंहटाएंविचारणीय लिंक्स का संयोजन। लघुकथा बेमिशाल और प्रेरक है। आभार सादर।
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