हाज़िर हूँ...! उपस्थिति दर्ज हो...
वो मानव ही है जो
परीक्षाओं में निडर अड़ा है
घर अधिंयारा क्यों ?
फकीर बिगड़ा क्यों ?
अनार क्यों न चखा ?
वज़ीर क्यों न रखा ?
दीवार क्यों टूटी ?
राह क्यों लूटी ?
प्रश्नोत्तर ढूँढ़ रहा
छोड़ भले दें संगी साथी
अपने चाहे हो जाए पराये
हिम्मत कभी न हारो तुम
बढ़ते जाओ तुम अविराम !
–डॉ. सविता श्रीवास्तव
भीड़-भाड़ भरी इस दुनिया में, मैं अक्सर भटक जाता हूं l
भूल जाता हूं मंजिल इन तंग होती गलियों चौबारो में l
डर जाता हूँ पल-पल स्वरूप बदलते इन मील के पत्थरों से l
किसी अनजान मोड़ पर रोशनी को नुमायाँ करता एक दीया जला हैl
–राही ( Sandeep JR Bhati )
कहीं सबेरा कहीं अंधेरा
कहीं दिन कहीं रात होगी।
कहीं हर्षोल्लास कहीं पे
इंतेहान की बात होगी।
–जीकेश माँझी
सादर नमन..
जवाब देंहटाएंसदा की तरह
सदाबहार अंक
आभार..
उम्दा संकलन।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंविभा जी ,
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचनाएँ पढवायीं आपने ।
हर संघर्ष में कोई साथ खड़ा था , प्रेरक है और अरुण जेमिनी तो जाने माने कवि .... आज सच ही बहुत कुछ लुप्त हो गया है ।
बहुत सुंदर संकलन
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह सुंदर संकलन प्रिय दीदी | सभी रचनाएँ दिए गये विषय की पूर्ति करती हैं | राही तो राही है ही , हर इंसान दुनिया में राही है | निरंतर जीवन पथ पर अग्रसर ये पथिक नित नयी उपलब्धियों को बटोरता चला जा रहा है आगे और आगे |पर आगे बढ़ने में जो पीछे छुट रहा है उसकी यादें हमेशा बनी रहेंगी | अरुण जैमिनी जी की रचना झझकोर गयी | सच में आज विनाश और संस्कृतियों की विलुप्तता के कगार पर खड़े हैं हम लोग | बहुत -बहुत आभार सार्थक संकलन के लिए | ऐसी प्रस्तुतियों पर सुधीजनों की प्रतिक्रियाएं ना पाकर अच्छा नहीं लगता | सभी रचनाकारों का हार्दिक अभिनन्दन |सादर -
जवाब देंहटाएंसुन्दर संकलन👏👏
जवाब देंहटाएंमेरी कविता "दो चार कदम और चल रही'" यहां पब्लिश करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंजिकेश मांझी
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