हाज़िर हूँ...! उपस्थिति दर्ज हो...
एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। रहिमन मूलहि सिंचिबो, फूलहि फले अघाय॥ -रहीम
‘‘...कहने की शैली हमारी जो भी हो, बहुत गंभीर अर्थ में किसी कृतिकार या युग को ‘समझना’ उसकी वंदना करने से ज्यादा बड़ा काम है और सचमुच बड़ा लेखक, अगर उसमें कुछ भी दम है तो अभिनंदित होने से अधिक ‘समझा जाना’ पसंद करेगा। अभिनंदन की प्यास दिमागी दुकड़ेपन की द्योतक है। कहने की जरूरत नहीं कि ‘समझने’ की एक (एकमात्र नहीं) अनिवार्य प्रक्रिया सीमारेखा का निर्धारण है।’’ —विजयदेव नारायण साही
लक्ष्य साधने की सफलता अभ्यास से अधिक मन की एकाग्रता पर निर्भर करती है। —स्वामी विवेकानंद
कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के चलते उत्पन्न अभूतपूर्व संकट और उससे बरती जा रही सावधानी के अंतर्गत हुए लॉकडाउन के कारण इस अंक की मुद्रित प्रति अभी नहीं आ पाई है। अतः मिश्र जी के जन्मदिवस पर हम इस अंक को सोशल मीडिया और वेबसाइट के माध्यम से हिंदी साहित्य के पाठकों, उनके स्नेही मित्रों एवं लेखकों तक पहुंचा रहे हैं।
चित्त की एकाग्रता योग की समाप्ति नहीं है। वहाँ से योग की शुरूआत है। —विनोबा भावे
ख्यात समीक्षक, आलोचक पूर्णचंद्र रथ का मानना है कि, ‘‘ओम भारती की काव्य भाषा की विशेषता है कि वे नितांत रूढ़ अर्थ परिभाषित कर चुके शब्दों के विन्यास से नए अर्थ हासिल कर लेते हैं। वह भी भावों के तनावों और क्रम के साथ।’’ इसलिए ओम भारती आज के उन असंख्य तथाकथित कवियों से अलग नजर आते हैं जो किसी बेतुके विमर्श अथवा विमर्श की आड़ में चर्चा में बने रहना चाहते हैं। सुबोध श्रीवास्तव, मलय तथा प्रहलाद अग्रवाल भी उनके व्यक्तिव से उन विशेषताओं को खोजकर सामने रखते हैं जो अब तक उनके सम्पर्क में रहे साहित्यमर्मज्ञों भी नहीं जानते होगें?
चित्त एकाग्र हुए बिना ध्यान और समाधि कठिन है। —मनु
यह सारल्य इस बात का प्रमाण भी है कि ऐसे लोगों की तादाद इधर बढ़ी है जो 'कविता-कविता' तो बहुत करते हैं, और अपने लेखे उन्होंने कविता को अनेक कामों में लगा भी रखा है, लेकिन कविता जिस भाषा में संभव होती है उससे उनका सम्बन्ध बहुत उथला है। वे कविता को बहुत सीमित और तात्कालिक मांग-पूर्ती के नियमों पर खरा उतरनेवाली कोई पण्य वस्तु ही समझते हैं। कविता का सामजिक सरोकार उन्हें जुमलेबाजी करने के लिए याद रहता है, उसका भाषिक सरोकार वे अक्सर भूलते हैं ! उनमें यह चिंता सिरे से ग़ायब है कि हमारे यहां संस्कृत, ( सिर्फ़ उर्दू नहीं) फारसी और अनेक बोलियों से संपन्न एक विपुल काव्य भी है, जिससे भाषा के स्तर पर एक स्मृतिजन्य सम्बन्ध बनता है।
पवित्रता के बिना एकाग्रता का कोई मूल्य नहीं होता। —स्वामी शिवानंद
तलुए आत्मा का रूप नहीं हैं पर जिस चिपचिपाहट का जिक्र कवि ने छेड़ा है, वह उस खरोंच के निकट है, जो जाने अंजाने इस जीवन संघर्ष में हमारी आत्मा पर लग जाते हैं. समझने-समझाने के लिहाज में अगर एक अधीर उदाहरण, अपमान का ही लें. संस्थाएं, सत्ताएं, कम्पनियां धीरे धीरे अपने ‘मिशन विजन स्टेटमेंट’ में ‘मूल्य / वैल्यू’ नामक हिस्से से जिस तरह ‘परस्परसम्मान’ नामक शब्द युग्म गायब होता जा रहा है, वह विचारणीय है. बाज दफे अपमान ही कोई मूल्य होता जाता है. वह अपमान भी इतना बारीक होता है, जैसा इस कविता में चप्पल पर चिपका हुआ भात.
सादर नमन
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह
शोधपरक प्रस्तुति..
एकाग्रता से चुनी हुई रचनाएँ
श्रम को नमन..
सादर
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंएकाग्र का सुंदर बोध कराती हुई खूबसूरत संकलन
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