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गुरुवार, 8 जुलाई 2021

3083...लेखक किसी असुरक्षा भाव से पीड़ित है...

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक लेकर हाज़िर हूँ आपकी सेवा में।

         आजकल सोशल मीडिया में लेखन की सहज उपलब्धता के चलते ख़ूब जमकर लिखा जा रहा है। इस लिखे जाने को नियंत्रित किए जाने के सरकारी प्रयास भी चर्चा में हैं। अब साफ़ तौर पर लेखन तीन खाँचों में बाँटा जा सकता है-पहला निष्पक्ष लेखन, दूसरा सरकार समर्थक लेखन और तीसरा सरकार विरोधी लेखन। अब इस लेखन का निचोड़ यह है कि पाठक दिग्भ्रमित है। पाठक के लिए बेहतर स्थित यह है कि वह सभी को पढ़े तब किसी निष्कर्ष पर पहुँचे। 

          आजकल एकतरफ़ा आक्रामक लेखन यह दर्शाता है कि लेखक किसी असुरक्षा भाव से पीड़ित है। लेखन की यह दशा साहित्य को मनमाने ढंग से परिभाषित करने का नया चलन है अतः सावधान होकर सोचिए आप नई पीढ़ी को कौनसे संस्कार स्थानांतरित करने वाले हैं। आजकल करोड़ों लिखनेवाले हैं फिर भी समाज में हिंसा और घृणा का तांडव क्यों बढ़ रहा है? क्या लेखन बेअसर होता जा रहा है? मूल्यों की स्थापना करनेवाला साहित्य किस अंधी खाई में जा गिरा है? साहित्य किसी परिप्रेक्ष्य, ख़बर;घटना या दुर्घटना के बाद स्वयं को प्रस्फुटित करता है जिसमें सामाजिक सरोकारों की गहन पड़ताल संवेदना के स्तर खोजती है। 

#रवीन्द्र_सिंह-यादव 

लीजिए पढ़िए कुछ रचनाएँ जो आजकल लिखीं जा रहीं हैं-

उलूकलिखता है बहुत कुछ दिखता है खुद की चार सौ बीसी कहाँ कब लिख पाता है है कहीं आईना जो बताता है:डॉ.सुशील कुमार जोशी 

अब दो को
कौन समझाये

कि
लिखने वाला

कभी अपनी कहानी

किसी को नहीं बताता है

 कहीं से

एक आधा या पूरा घड़ा लाकर

यहाँ फोड़ जाता है

सबसे बड़ा बेवकूफ

वो है

जिसे लिखे लिखाये पर

लेखक का चेहरा नजर आता है

 

केंचुए नाग हो गए... डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

कौवे- काँस्य पा गए, बगुलों ने रजत मढ़ा

स्वर्ण पदक गिद्धों के भजन-राग हो गए।

पारी की प्रतीक्षा में, तट पर मौन कुछ खड़े

कुछ पवित्र हो, गंगा में बुलबुले झाग हो गए।

 

इस षड्यंत्र का भी इलाज होगा मगर धीरे-धीरे:अलकनंदा सिंह 

किसी दुष्टात्मा की तरह
निर्दोषिता का स्वांग किए,
पीले मुँह वाली चीटियाँ,
विवेकहीन, गुमनाम दास,
किए जा रही हैं
अपना काम
दायित्व समझ कर,
फ़र्श के नीचे
किसी वाहवाही
या शाबासी की
अपेक्षा किये बिना ही।


५८६.अनबन:ओंकार 

पर क्या करूँ,

इन दिनों मुझे गेहूँ से

एलर्जी हो गई है.

मैं बड़ी मुश्किल में हूँ,

इन दिनों मेरे तन और मन में

अनबन चल रही है.

 

तो फिर... | कविता | डॉ शरद सिंह

 जो नहीं इस धरती पर

नहीं दिखते

जो गए इस धरती से

वे कभी लौट कर नहीं आते

तो फिर

अलौकिक देवता

कैसे आएंगे भला?

अपने-अपने दुख

हम सब को ढोना है

देवता को नहीं


 चलते-चलते सिने जगत के महान सितारे दिलीप कुमार साहब को श्रद्दांजलि-

अलविदा दिलीपकुमार:प्रोफ़ेसर गोपेश मोहन जैसवाल 

दिलीपकुमार एक बुद्धिजीवी और साहित्य-प्रेमी कलाकार थे. उनके अभिनय में गहराई थी और किरदार को इमानदारी के साथ निभाने की ललक थी. उनका उर्दू उच्चारण लाजवाब था. 'मुगले आज़म' में बाग़ी सलीम की कठिन और चुनौतीपूर्ण भूमिका निभाते समय उनके संवाद आज उर्दू साहित्य के विद्यार्थियों के लिए भी प्रेरणादायक हो सकते हैं.

हिंदी फ़िल्म-उद्योग में उनके लिए भूतो भविष्यत् का प्रयोग किया जाना सर्वथा उचित है.

अलविदा दिलीपकुमार! आप जन्नत में ख़ुश रहें!

*****

आज बस यहीं तक 

फिर मिलेंगे अगले गुरुवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव  

14 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर,शानदार अंक की प्रस्तुति, हार्दिक शुभकामनाएं रवीन्द्र जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. जायज प्रश्न उठाती भूमिका। मर्यादा के अंदर स्वस्थ अभिव्यक्ति प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। किसी भी आलोचना या प्रशंसा को उसकी खूबियों और खामियों को परखते हुए पर वस्तुनिष्ठ ढंग से मूल्यांकन होना चाहिए। उसके प्रति बेमतलब की कड़वाहट पालना अपनी कमजोरी है। साहित्यिक लेखन के केंद्र में व्यक्ति, समाज और इंसानियत होनी चाहिए न कि सरकार या विपक्ष।

    जवाब देंहटाएं
  4. "आजकल करोड़ों लिखनेवाले हैं फिर भी समाज में हिंसा और घृणा का तांडव क्यों बढ़ रहा है? क्या लेखन बेअसर होता जा रहा है? मूल्यों की स्थापना करनेवाला साहित्य किस अंधी खाई में जा गिरा है?"
    सबसे पहला प्रश्न तो यह कि क्या हम इसे साहित्य कहेंगे ? आजकल जिसे देखो वह 'स्वांतसुखाय' लिख रहा है। फिर चाहे वह लेखन दूसरों को दुःख ही क्यों ना दे जाए। मैं तो सच में कई बार स्वयं से यह प्रश्न पूछती हूँ कि हम क्यों लिख रहे हैं ?
    सब कुछ निरर्थक ही लिखा जा रहा है ऐसा भी नहीं है। कभी लगता है कि लोगों की अभिरुचि ही दूषित हो गई है। सार्थक लेखन को पढ़ने, समझने अौर आत्मसात करने में धैर्य और समय लगता है जिसकी अब लोगों में कमी है।
    "पाठक दिग्भ्रमित है।"
    हाँ, यह भी सच है। जब इतना सारा लिखा जा रहा है तो कहाँ तक सही गलत का चुनाव करे पाठक ? और सब इतने गंभीर पाठक होते भी कहाँ हैं? पाठक को सही दिशा देनेवाले निष्पक्ष समीक्षक भी कहाँ हैं? भाषा हो या पोशाक, भड़कीलापन ध्यान आकर्षित करता है। आकर्षण का केंद्र बनने हेतु लिखनेवालों को साहित्य से कोई सरोकार नहीं होता। आधुनिकता के नाम पर साहित्य में गालियों का प्रयोग, मर्यादा का उल्लंघन करती भाषा पाठकों की संख्या तो बढ़ा सकती है परंतु शाश्वत एवं क्रांतिकारी साहित्य नहीं रच सकती।
    गंभीर प्रश्न उठाती भूमिका। सुंदर रचनाओं का संकलन। सादर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. वाह प्रिय मीना, बहुत ही सार्थकता से प्रकाश डाला आपने सच है इतना कुछ है पढ़ने के लिए ---किताबें, मोबाइल कंप्यूटर, अख़बार, पत्रिकाएं, फेसबुक और कितनी ही वेबसाईट। पाठक चुनाव करे भी तो कैसे? अपनी -अपनी डफली अपना -अपना राग चल रहा है। सहमत हूं आपके विचारों से। ये भी जोड़ना चाहूंगी कि चाटुकारों की फौज पाठकों को भटकाने पर तुली है तो चारण कवि विभिन्न सत्ताओं का गुणगान करते हलकान हुए जा रहे हैं।

      हटाएं
  5. सुंदर सुभग मुखर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  6. मेरी कविता को "पांच लिंकों का आनन्द" में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद एवं आभार रवीन्द्र सिंह यादव जी 🌹🙏🌹

    जवाब देंहटाएं
  7. उम्दा लिंक्स की उम्दा प्रस्तुति 🙏

    जवाब देंहटाएं
  8. मेरी ब्‍लॉगपोस्‍ट को शाम‍िल करने के ल‍िए धन्‍यवाद रवींद्रजी

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत बढ़िया प्रस्तुति है, आज देख पाई। सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं

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