निवेदन।


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सोमवार, 26 अप्रैल 2021

3010......... आज का विषय कोरोना ..... विशेषांक . कहने का मन नहीं ....

इन दिनों सोचने लगी हूँ
एक दिन मेरे कर्मों का
हिसाब करती
प्रकृति ने पूछा कि-
महामारी के भयावह समय में
तुम्हें बचाये रखा मैंने...
.............
आवरणहीन देखकर
लज्जा से 
 फूट-फूटकर रो पडूँगी
तब प्रकृति मुझे 
मुट्ठीभर रेत बनाकर
मरूस्थल में बिखेर देगी।





उपर्युक्त  पंक्तियाँ एक ऐसी कविता से ली हैं जो पाठक को अपनी आत्मा से मिलने का , और स्वयं के आकलन का एक मौका देती है . आज  की ये एक विशेष कविता है जिसे आज विशेष लिंक की हैसियत से ही चर्चा में शामिल किया है  . आपमें से बहुत से पाठक इस कविता को पढ़ चुके होंगे ..लेकिन हो सकता है यहाँ लिंक लगाने से कुछ और भी प्रबुद्ध पाठक  इस कविता के लिंक पर जा कर पूरी कविता  (जी हाँ यहाँ केवल  बानगी दी गयी है )  पढ़ कुछ सोचने पर मजबूर हो जाएँ .लिंक चित्र में  और रचनाकार के नाम में समाहित हैं . 

प्रारंभ करते हैं आज की चर्चा .... 

जैसा कि आज की चर्चा का विषय लिया है तो निश्चय ही मन बहुत  अनमयस्क सा है ... .. दिन प्रतिदिन महामारी का फैलाव सबके मन मस्तिष्क पर हावी होता जा रहा है .... ऐसे समय में सकारात्मक उर्जा समेटना कठिन हो रहा है , 
इसी लिए आज की रचनाओं में सबके मन के भाव प्रमुखता से उतर कर आये हैं ...

ज्यादा कुछ न कहते हुए आप सबके सामने आज के पाँच लिंक रखने जा रही हूँ ......आशा है इन रचनाओं से आप मेरे मन की मनोदशा भी समझ पायेंगे .. 

 सुश्री  मीना भारद्वाज  जी अपनी त्रिवेणी के माध्यम से ईर्ष्या  और    रंजिश से होती हुई कोरोना की भयावहता तक पहुंची हैं ... 


image.png



 आपने पढ़ा कोरोना की  भूख शांत नहीं हो रही  ... चारों  ओर एक भयावह मंज़र महसूस होता है ..... और इसी मंज़र को शब्द दिए हैं  शैल जी ने अपनी रचना में  .... 


हर ओर है पसरा सन्नाटा 
चहुँओर ख़ौफ़नाक है मंज़र 
मची तबाही शहर गली में 
इक वायरस ने घोंपा है ख़ंजर , 

एक ओर जहाँ सब कोरोना से पीड़ित हैं वहीँ हमारे महानुभाव  पत्रकार कोरोना से कम  नहीं . अलकनंदा जी ले कर आई हैं अपने लेख में  ....

कोरोना की भयावहता के इस दौर में ज‍िसे हम एकमात्र आशा कह सकते हैं, वह है मानवीयता। क‍िसी को पथभ्रष्ट करने के ल‍िए मानवीयता और अमानवीयता के बीच एक बारीक सी लाइन होती है। और यह पथभ्रष्टता अपने चरम पर तब पहु़ंचती द‍िखाई देती है जब सत्य द‍िखाने का दावा करने वाले पत्रकार ‘चुन चुन कर’ उन तथ्यों को अपनी ल‍िस्ट में रखते हैं जो अराजकता और भय फैला सकें। 

अरुण चन्द्र राय  ऐसे समय कह रहे हैं कि ये समय  श्रद्धांजलि   लिखने का नहीं है ..... आखिर उनके मन में चल क्या रहा है जानते हैं इस लिंक पर जा कर .....

यह शोक का समय है


यह व्यक्तिगत नहीं 
सामूहिक शोक का समय है
अशेष संवेदनाओं के आत्महत्या का समय है यह। 

और इस शोक के समय भी  ऋतुएँ तो अपने वक़्त के अनुसार आती हैं , जाती हैं ..... कवि हृदय उनको किस प्रकार महसूस करता है इसकी बानगी देखिये  ओंकार जी की कविता  में .....

वसंत


कहने को तो यह वसंत है,
पर मुर्दनी छाई है सब तरफ़,

शाख़ें लदी हैं फूलों से,

मगर ख़ुशबू ग़ायब है,


आज बस इतना ही ... कुछ ज्यादा न तो कहने का मन है और न ही लिखने का ... बस सब सुरक्षित रहें ... स्वस्थ रहें ..... इसी प्रार्थना के साथ विदा लेती हूँ ..... फिर मिलेंगे अगले सप्ताह सोमवार को इसी मंच पर ....

नमस्कार 

संगीता स्वरुप 



21 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर संकलन.मेरी कविता शामिल की.आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. यह व्यक्तिगत नहीं
    सामूहिक शोक का समय है
    अशेष संवेदनाओं के आत्महत्या का समय है यह।

    जवाब देंहटाएं
  3. सादर आभार संगीता जी आज के संकलन में शामिल करने के लिए । सभी स्वस्थ्य रहें..सुरक्षित रहें.. यही कामना है ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मीना जी ,
      शुक्रिया । सब एक दूसरे के लिए सवास्थ्य की कामना करें ।

      हटाएं
  4. आदरणीय दीदी,प्रणाम !
    सार्थक प्रस्तुतियों का रोचक संकलन,
    आदरणीय दीदी,ऐसा लगता है, कि इस संकलन को आपने बहुत ही भारी मन से सजाया होगा, इस समय हर इंसान की मनःस्थिति बहुत ही गमगीन और भारी है,परंतु हमें अपने ब्लॉग के माध्यम से ही कुछ न कुछ नया कलात्मक करते रहना चाहिए जिससे हमारी स्वस्थ ऊर्जा संरक्षित रहे, आपके सुंदर श्रमसाध्य प्रयास को हार्दिक नमन एवम वंदन । शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय जिज्ञासा ,
      कभी कभी मानवीय प्रयास असमर्थ हो जाते हैं । सच ही मन तो बहुत अनमना था लेकिन किसी को मैने ही कहा था कि हमें अपना कर्म करते रहना चाहिए .... तो जो मेरा कार्य था चर्चा लगाने का , मैने किया , । तुम सब के साथ शीघ्र ही सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर पाऊँ शायद । शुक्रिया ।

      हटाएं
  5. प्रिय दीदी, प्रिय श्वेता की झझकोरने वाली कविता जब पहली बार पढ़ी तो मेरी आँखें नम हो आईं! आखिर ये मात्र कविता तो नहीं, ये कवि मन की छटपटाहट है जिसमें आम आदमी की विकलता जाहिर होती है जो देख सब रहा है पर अवश है, कुछ कर नहीं पा रहा ! उसे पता है मानवता का ये संकट भी मानव जनित है जिसका समस्त भार कवि मन अपने उपर ले सशक्त प्रकृति के समक्ष नत हो सर्वस्व समर्पण करने को आतुर है__---
    ये पंक्तियाँ किसका हृदय छलनी ना कर देंगी-----------------

    मेरा प्रलाप सुनकर
    प्रकृति ठठाकर हँस पड़ेगी
    और मैं...
    अपनी अकर्मण्यता को
    आवरणहीन देखकर
    लज्जा से
    फूट-फूटकर रो पडूँगी
    तब प्रकृति मुझे
    मुट्ठीभर रेत बनाकर
    मरूस्थल में बिखेर देगी।
    अपने नश्वर अंत की स्वीकार्यता में कदाचित् कवि मन का अपार सन्तोष छुपा है! श्वेता के लिए क्या कहूँ उसकी भावनाओं की किस आकुलता से इस रचना का जन्म हुआ होगा!
    मीना जी की भावपूर्ण रचना की ये गी पंक्तियाँ भी स्तब्ध करती हैं___
    शहर और गाँव उदास व गमगीन हैं..,

    इन्सान भी हताशा और निराशा में डूबा है ।

    'कोरोना' को फिर से भूख लगी है ।।

    सचमुच, कोरोना की भूख भयावहता के साथ विकराल रूप में पाँव पसार रही है!

    सुदक्ष कवियत्री शैल जी बहुत ही शानदार लेखन करती हैं पर ना जाने क्यों सुधि पाठकों और लिंक मंचों की उपेक्षा का स शिकार रही हैं! उनकी मार्मिक रचना कोरोना काल का स्याह सत्य कहती है-

    दारुण सी व्यथा जगत की
    करुण क्रन्दन सुन कर्ण फटे
    ऐसी दहशत फैला रखी कोरोना
    कि अपने भी सम्पर्क से अलग हटे ,
    अलकनंदा जी की निर्भीक पत्रकारिता, उन छद्म पत्रकारों की पोल खोलने से कभी पीछे नहीं हटी जो इस संकट काल में भी आपना लाभ देखने से बाज नहीं आते!
    कोरोना काल की अनगिन चिताअों से तपते बसंत पर ओंकार जी की रचना मन को मथती हुई अनुत्तरित कर देती है!
    अंत में, अरुण जी की भावाभिव्यक्ति को सम्मान देते हुए कहना चाहूँगी, कोरोना के बहाने से भ्रष्टाचार भी जारी है और स्वार्थी तत्व भी सक्रिय हैं पर इस काल में मानवता संवेदनाओं के बूते मजबूती से खड़ी है!
    चिकित्सक, वर्दीधारी जनसेवक से लेकर कूड़ा निपटान वाले आम कर्मचारी से लेकर समाज को विभिन्न सेवाएं मुहैया करवाने वाले तत्व मजबूती से कर्तव्य निर्वहन में जुटे हैं, हमे उन्हें नमन करना चाहिए! मौत का भय उन्हें भी सताता होगा पर वे डटे हैं मानवीय संवेदनाओं के साथ! अंत में आपके अंतस को छुते समीक्षात्मक विश्लेषण को नमन करते हुए आज के शामिल समस्त रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं देती हूँ! सभी स्वस्थ रहें, सकुशल रहें यही कामना है साथ में आग्रह कि बीमारी के भय को अपने ऊपर हावी ना होने दें 🙏🙏

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    उत्तर
    1. जी दी,
      आपकी विस्तृत और उत्साह बढ़ाती प्रतिक्रिया में पूरी प्रस्तुति का अर्क है।
      आप की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहती है।
      मेरी रचना का मर्म समझने के लिए बहुत आभार दी।
      सस्नेह
      सादर।

      हटाएं
    2. प्रिय रेणु ,
      तुमने सच ही कहा कि श्वेता की कविता मात्र कविता नहीं है .... स्वयं का आंकलन करती , अपनी विवशता से उपजी एक खीज ,कुछ न कर पाने की हताशा .... न जाने क्या क्या .... कुछ ऐसा जो हम सबके मन को उथल पुथल कर दे । कुछ विशेष है इसीलिए विशेष के अंतर्गत शामिल किया है ....
      मैने तो बस लिंक्स लगाए लेकिन सटीक विश्लेषण तुमने किया है । तुम्हारे जैसे पाठक और उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने वाले बहुत कम होते हैं । मैंने तो तुम्हारे रूप में पहली बार ही ऐसा पाठक देखा है ।इसी लिए शायद तुम्हारी प्रतिक्रिया का बेसब्री से इंतज़ार रहता है । मुझे तुम्हारे द्वारा बताई कमी भी अज़ीज़ है । किसी भी चर्चाकार का हौसला तुम जैसे पढ़ने वाले ही बढ़ाते हैं । दिल से शुक्रिया । सस्नेह

      हटाएं
  6. प्रिय संगीता दी,
    प्रणाम।
    आपकी व्याकुल मनोदशा का अनुमान आपके द्वारा संजोए सूत्रों से लगाया जा सकता है।
    मेरे मन के झंझावात से उत्पन्न विचारों एवं शब्दों को आपने इतना महत्व दिया बहुत विशेष है मेरे लिए।
    दी यह रचना नहीं है न ही यह शाब्दिक अभिव्यक्ति नकारात्मक या सकारात्मक है, यह महामारी से त्रस्त, तड़पते, परेशान लोगों के लिए कुछ न कर पाने की विवशता है।
    प्रयास है सकारात्मक सक्रियता से कुछ रचनात्मक कर सकूँ।
    सभी रचनाओं पर दृष्टि ही डाल पायी हूँ अभी
    रचनाएँ पढ़ी नहीं। यह प्रस्तुति संग्रहित कर ली है दी।

    सप्रेम
    शुक्रिया।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय श्वेता ,
      जो कुछ मन को विशेष लगेगा उसे स्वयं ही विशेषता का दर्जा मिल जाएगा । मन के भावों को सटीक शब्द दिए हैं । समझ पा रहे हैं आकुल मन की व्याकुल भाषा ।
      सस्नेह

      हटाएं
  7. आदरणीया मैम, आज की यह प्रस्तुति मेरी आँखों में भी आँसू ले आई । सच कहूँ तो यह प्रस्तुति नहीं, आज के इस दुखद और भयवक परिस्थिति का एक चलचित्र है जो शायद इस महामारी के चले जाने के बाद भी पूरी तरह नहीं जा पाएगा। इन दिनों यह विचार भी रह-रह कर आ ही जाता है कि जो लोग इस महामारी का ग्रास बने हैं, क्या उनके लिए यह जीवन कभी पहले जैसा हो पाएगा। ईश्वर से प्रार्थना है कि इस महामारी का नाश कर, मानव-जीवन को फिर से खुशहाल कर दें । कोई चमत्कार करें ताकि हर वह व्यक्ति और परिवार जो इस काल का परिणाम भोग रहा है, उसके दुखों का नाश कर दें । हार्दिक आभार व आप सबों को प्रणाम ।

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  8. हे ईश्वर..
    जो संक्रमित हे,
    उन्हें स्वास्थ लाभ दो..!
    जो वेंटीलेटर पर है,
    उन्हें श्वास दो..!
    परिवारजनों को विश्वास दो..!
    भयभीत है मानव
    उनको अपने अस्तित्व
    का विश्वास दो..!

    जवाब देंहटाएं
  9. बस इस विषय की चर्चा करने की भी कभी जरुरत न पड़े यही प्रार्थना है.

    जवाब देंहटाएं
  10. आदरणीया श्वेता मैम की अभिव्यक्ति परसों भी पढ़ी थी,
    तब निःशब्द और निर्विचार एक साथ हो गयी थी। आज आदरणीया रेणु मैम का विश्लेषण पढ़ कर पुनः उनकी रचना पढ़ी तो मन बहुत भावुक हो गया, शब्द तो अभी भी नहीं सूझते।
    ,

    जवाब देंहटाएं
  11. संगीता जी प्रणाम, अरे वाह.. मेरी ब्लॉगपोस्ट इस मंच पर साझाा करने के ल‍िए धन्यवाद, सभी ल‍िंंकएक से बढ़कर एक है ...वाह

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  12. बहुत ही बेहतरीन लिंक्स एवम प्रस्तुति ...

    जवाब देंहटाएं

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