सबके जमाखोर!
ताल ठोकते रहे तुमसे,
चकले में हैवानियत के।
तनिक भी तूने, तब भी नहीं की,
मौत की कालाबाज़ारी!
डटे रहे राह पर बराबरी के,
‘सब धन बाइस पसेरी”
तुम्हारे होने से मन घर बन जाया करता है...संदीप कुमार शर्मा
एक कोने में
कुछ यादें रखी
थीं
सहेजकर
उन पर भी
धूल की मोटी परत थी।
नयन-नयन... पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
इच्छाओं के घेरों में, निस्पृह मन,
ज्यूँ, निस्संग, कोई तुरंग, भागे यूँ सरपट,
सूने से, उन सपनों संग,
विवश, बंद-बंद अपने आंगन,
जागी सी, इच्छाओं संग,
कैद हुए, ये क्षण!
कांधा दिए आँखों में आंसू ,लाचारी
धैर्य देते-देते अब खुद धैर्य को थामे
के जाओ नहीं छोड़कर साथ हमारा
तुम नहीं तो कैसे देंगे हम हौसला
एक-एक करके सभी छोड़े जा रहे
फिर भी लटक रही तलवार
चारों तरफ कोरोना ने
मचाई है हाहाकर
ताली बजाई, थाली बजाई
बेमौसम दिवाली मनाई
लेकिन खतरा टला नहीं
आसानी से जाने वाली
ये छोटी सी बला नहीं
सब कुछ कर डाला हमने
फिर कोरोना मरा नहीं
रवीन्द्र सिंह यादव
शुभ प्रभात..
जवाब देंहटाएंसब कुछ किया
बस सामुहिक मिलन-भ्रमण बंद नहीं किया..
बेहतरीन अंक..
सादर..
सामयिक सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह!अनुज ,बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत आभारी हूं रवींद्र जी आपका। मेरी रचना को स्थान के लिए और सभी अच्छे लिंक मुहैया करवाने के लिए। बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंआभार आपका मेरी रचना को शामिल करने के लिए
जवाब देंहटाएंसामयिक और सार्थक सूत्र।
जवाब देंहटाएंसमसामयिक सूत्रों से सजा संकलन ।
जवाब देंहटाएंसभी लिंक्स पर बेहतरीन रचनाएँ पढ़ने को मिली ।आभार
जवाब देंहटाएंBahut accha Article Likha hai aapne. Dinish Guarda Net Worth Early Life
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