।। उषा स्वस्ति ।।
किरन-किरन सोना बरसाकर किसको भानु बुलाने आया,
अंधकार पर छाने आया, या प्रकाश पहुँचाने आया।
मेरी उनकी प्रीत पुरानी, पत्र-पत्र पर डोल उठी है,
ओस बिन्दुओं घोल उठी है, कल-कल स्वर में बोल उठी है..!!
माखनलाल चतुर्वेदी
चलिए अब हम सभी प्रकृति के कल कल स्वर में कुछ कर गुजरते हैं, अभी हमारे हक की हवाएं बहुत बदली हुई है, तो फिर...सुबह की शुरूआत,आज चंद रचनाओं से करते हैं, रचनाकारों के नाम क्रमानुसार दर्ज किया गया है..
बाहर तो बस करोना और ये करो ना और मूँह ,नाक ढकों ना..
आ० जयश्री वर्मा जी
आ० राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी
आ० पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी
आ० विश्वमोहन जी
आ० हरीश कुमार जी..✍️
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जो होंठों तक गर बात आई,तो कह दीजिये,
के जो दिल अपना सा लगे,उसमें रह लीजिए।
न आएगा यूँ ऐसा सन्देश,बार-बार प्यार का,
यौवन की उमंग और,ऐसा मौसम बहार का..
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बहुत से लोगों के लिए यह मजाक का विषय बन जाता है कि मधुबाला आज भी हमारे मोबाइल में, लैपटॉप में वॉलपेपर के रूप में उपस्थित रहती हैं. मधुबाला आज भी हमारे आसपास किसी न किसी रूप में मौजूद रहती हैं. मधुबाला से कब प्रेम सा हो गया पता नहीं मगर जिस दिन से ...
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अश्क जितने, इन नैनों की निधि में,
बंध न पाएंगे, परिधि में!
बन के इक लहर, छलक आते हैं ये अक्सर,
तोड़ कर बंध,
अनवरत, बह जाते है,
इन्हीं, दो नैनों में!
अश्क जितने, इन नैनों की निधि में..
हो कोई बात, या यूँ ही बहके हों ये जज्बात..
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पत्ते पुलकित हैं। हिलते दिख रहे हैं। कौन है उत्तरदायी? हवा। पत्ते स्वयं। आँखें। कोई झकझोर तो नहीं रहा पेड़ को! या फिर, ‘हिलना’ स्वयं एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में! किसी एक को हटा लें तो सारा व्यापार ख़त्म! और यदि सभी साथ इकट्ठे हों भी और मनस के चेतन तत्व को निकाल लिया जाय तो फिर वही बात – “ढाक के तीन पात”!
चेतना कुछ ऐसा अहसास छोड़ जाय जो समय, स्थान या किसी भी ऐसे भौतिक अवयव..
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दो गज दूरी....
हक मे हवायें चल नहीं रहीं
प्रकृति भी रुख रही बदल
फैल रहा रिपु अंजान अनिल संग
घर से तू ना बाहर निकल
कर पालन हर मापदंड का
जिसे सरकारों ने..
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।। इति शम ।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍️
बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंआभार..
सादर..
धन्यवाद आ०
हटाएंशुभ प्रभात ...
जवाब देंहटाएंआज की इस उल्लेखनीय प्रस्तुति में मुझे भी शामिल करने के लिए आदरणीया पम्मी जी का आभारी हूँ।
पटल को नमन।।।।
प्रतिक्रिया हेतु आभार
हटाएंवाह! सुंदर प्रस्तुति के आमुख को सजाती सुंदर भूमिका। कुछ हम भी जोड़ लें
जवाब देंहटाएंप्राची के आँचल में नभ से
जैसे ही रश्मि आती।
पुलकित मचले विश्व चेतन से
जीवन में उजियारी छाती।
मन के घट में, भोर प्रहर में
जीवन का रंग बिखरता है।
कण कण जीव चेतन के संग
मन अनंग निखरता है।
आमुख को सजाती शब्दावली के लिए विशेष तौर पर धन्यवाद।
हटाएंआगे कुछ बोलना सूर्य को दीये दिखाने वाली बात हो जायेगी।
आभार
शानदार लिंक्स लिए हैं । सुबह सुबह अच्छी खासी कसरत हो गयी दिमाग की विश्वमोहन जी के लेख के माध्यम से ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
जी धन्यवाद। दिमागी कसरत.. ये तो और भी अच्छी🙂
हटाएंसादर
सभी को सुप्रभात और प्रणाम 🙏🙏
जवाब देंहटाएंसुंदर लिंकों से सजा अंक प्रिय पम्मी जी। भावपूर्ण भूमिका, सार्थक लेख और सरस काव्य सृजन सभी पठनीय👌👌 भूमिका के लिए कुछ भाव मेरे भी------
चहुँ दिशि बिखरी स्वर्णिमआभा
खिली नवभोर मतवाली
सरस गीत गाये कोयलिया।
झुकी अम्बुवा की डाली।
उमड़ पड़े नव सौरभ के घन
हर कानन, उपवन में,
नवपल्लव भरी शाख मुदित
डोले मलय पवन में!
भाव भरो आ प्रीत राग में
पाहुन !क्यों रस्ता भूले?
महकी गालियाँ नीम गंध से,
बाट जोह रहे झूले!!!
आज के शामिलसभी रचनाकारों को नमन आपजो बधाई और शुभकामनाएं 🙏🙏❤❤🌹🌹
वाहह!!आदरणीय इतनी अच्छी टिप्पणी और उससे भी अच्छी भूमिका को विस्तार देतीं शब्दावली।
हटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण रचना।लिखते रहिये। ये आदत अच्छी है🙂
सादर
जहाँ अहसास रुहानी होता है
जवाब देंहटाएंवहाँ ‘अयं निज: परो वेत्ति’
की बात नेपथ्य में ही रह जाती है।
वहाँ सब कुछ एक हो जाता है –
‘तत् त्वम असि। सो अहं।।
एकोअहं, द्वितियोनास्ति।।।‘
सटीक..
आभार भाई विश्वमोहन जी
सादर..
सारगर्भित टिप्पणी के लिए आभार।
हटाएंमेरी रचना को इतनी उत्कृष्ट रचना के साथ सम्मिलित करने के लिए आपका तहेदिल से आभार 🙏
जवाब देंहटाएंसुंदर सकारत्मकता से ओतप्रोत भूमिका और शानदार रचनाओं से सुसज्जित सराहनीय संकलन दी।
जवाब देंहटाएंसादर।
लाजबाव संकलन
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