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मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

1726....कविता और छंद से ही कहना आये जरूरी नहीं है

सादर अभिवादन
अभी कुछ देर पहले ही आज के लिए
सांध्य दैनिक मुखरित मौन की रचनाएँ चुने
पुनरावृत्ति न हो..इसीलिए
आज की पहली दो रचनाएं
एक मासिक पत्रिका ई-अनहद कृति से
आपको पसंद भी आएगी..
चलिए पढ़ें..

इलाज के अभाव में मरने वाले मरीजों की संख्या कितनी 
बढ़ जाएगी, यह तुमने सोचा है क्या?’
’अरे बावली, तुझे ही पूरी दुनिया की चिंता है?’ कभी अपने बारे 
में भी सोच... इन डॉक्टरों पर ईलाज में ढिलाई का इल्जाम लगाकर....’हो सकता है हमें कुछ क्षतिपूर्ति मिल जाए।’’


हार में निराश न हो,
जीत में उल्लास न हो
छाता वही है नभमंडल में,
जिसके हताशा पास न हो।
तू कर यकीं और सीखता चल
चाहे कोई साथ न हो,
हार जाते वो जगत में
ख़ुद में जब विश्वास न हो।


आज सुबह-सुबह,
कुत्ते ने दौड़ा दिया मुझे।
मास्क नहीं लगाया था!

कुछ अंधे भी नाराज हो गए।
एक दीप जला दिया था,
कल अंधेरे में!

कहते हैं किसी
तरह लिखते हैं
किसी तरह
ना कवि होते हैं
ना कहानीकार होते हैं
ना ही किसी उम्मीद
और ना किसी सम्मान
के तलबगार होते हैं
उलूक तेरे जैसे
देखने तेरे जैसे सोचने
तेरा जैसे कहने वाले
लोग और आदमी
तो वैसे भी नहीं
कहे जाने चाहिये
संक्रमित होते हैं
बस बीमार और
बहुत ही
बीमार होते हैं ।
...
अब एक रचना बंद ब्लॉग से
कविताएँ
एक औरत,
मासूमियत भरी,
देखती रही !

आँखें नम-सी,
भूख से तड़पती,
पैसे माँगती !

दिल ने कहा,
बेबसी देखकर,
करूँ मदद !
( उर्मि दी पर्थ, आस्ट्रेलिया में 
है)
....
अब बारी है विषय की
115 वाँ विषय
लघु कथा
आपको लघुकथा लिखना है
प्रेरणा इस अंक की पहली रचना पढ़कर लें
अंतिम तिथिः 11 अप्रैल 2020
प्रकाशन तिथिः 13 अप्रैल 2020
ब्लॉग सम्पर्क फार्म द्वारा ही मान्य
सादर


17 टिप्‍पणियां:

  1. फ़ना निज़ामी कानपुर के शब्दों में मैं तो इतना कहना चाहता हूँ-

    अंधेरों को निकाला जा रहा है
    मगर घर से उजाला जा रहा है।

    मेरे जैसे करोड़ों निम्न- मध्यवर्गीय लोगों के साथ यह उत्सव उपहास है। चाहे किसी को बुरा लगे। मैं इसका समर्थन नहीं करता। सरकार कहती है कि मुफ़्त राशन देगी। पर कितना, एक यूनिट पर पाँच किलोग्राम चावल मात्र। इससे अधिक मुफ़्त गल्ला लेने के लिए निम्न- मध्यवर्गीय लोग शासन द्वारा तय शर्त पूरा नहीं कर सकते हैं और न ही श्रमिक वर्ग की तरह उन्हें सरकारी एक हजार रूपये का लाभ मिलेगा। जबकि इनके घर की आर्थिक स्थिति इस लॉकडाउन में पूरी तरह से डाँवाडोल है। सरकार , जनप्रतिनिधियों और ऐसे समाजसेवियों को यदि इस वर्ग के लोगों के दर्द की पहचान नहीं है, तो ऐसी समाजसेवा और ऐसे उत्सव मनाने का उसे अधिकार किसने दिया है ? यह कैसा उत्सव है ? हम इतने ढेर सारे दीपक जला और पटाख़े फोड़ क्या जताना चाहते हैं। संदेश देते समय यह भी तो स्पष्ट करना चाहिए कि एक से अधिक दीपक न जलाना,यह इस विपत्ति में सरसो तेल का अपव्यय होगा। अतः यह दीपोत्सव आपसभी को मुबारक़ हो। एक पत्रकार होने के लिहाज़ से मैं इतना ही कहूँगा। आप मेरी प्रतिक्रिया की जितनी भी भर्त्सना करें, परंतु इस तरह से ढेरों दीपक जला तेल का अपव्यय मत करें।अधिकांश लोगों ने यही किया है।
    मैं इनकी नज़रों में कुत्ता ही सही , परंतु जब भी वह कुछ संदिग्ध देखता है,तो भौंक कर लोगोंं को सावधान करता है। यही उसका धर्म है। यही हम पत्रकारोँ का भी धर्म हैं। अब बड़े साहित्यकार जो समझें।

    मीना दी की तरह एक दीपक जलाने वाले नाममात्र के दिखें।
    सादर ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बिल्कुल सही। किन्तु समाज में आज महामारी के मातम में उत्सव का यह मनोविज्ञान कैसे उपजा। यह शोध का विषय है। एक सजग पत्रकार होने के नाते समाज के इस व्यवहार की सही पड़ताल करें।

      हटाएं
  2. बेहतरीन प्रस्तुति दी ,सादर नमन आपको

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह, लाजवाब अंक दीदीजी।सादर नमन।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बहुत सुंदर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बहुत आभार मेरी रचना को स्थान देने के लिए

    जवाब देंहटाएं

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