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मंगलवार, 20 अगस्त 2019

1495...गुरुर से लबरेज़ शख़्स को कौन करेगा दिल से सलाम...

सादर अभिवादन। 

गुरुर से लबरेज़ शख़्स को 
कौन करेगा दिल से सलाम,
सुकून-ए-ज़िन्दगी की तलाश में  
ढल न जाय मोहिनी सिंदूरी शाम। 
-रवीन्द्र   

आज आपकी सेवा में पेश हैं चंद पसंदीदा रचनाएँ। आइये नज़र डालते हैं-
  


प्रथम किरण ने छूआ भर था
शरमा गएझर– झर बरसते
सिउली के ये कुसुम निराले !

कोमल पुष्प बड़े शर्मीले
नयन खोलते अंधकार में
उगा दिवाकर घर छोड़ चले !



सबके अपने अपने गम
कुछ के ज्यादा कुछ के कम
सह लेता है जिसमें दम
सुन आँसूं पलकों के पीछे थम 
जाने क्यों आँखें ... 


सह पीड़ा अनन्त सहेजती रहती स्मृतियां 
नितान्त अकेले क्षणों की बन सहभागिनी 
भर आगोश में तुम करती अद्भुत करिश्मा
उदासी का अवलंब जुदाई की सहचारिणी ।



अपने -अपने ज़ख़्म छिपाये हुए लोग
मरहम की आस में आएंगे निकट,
तुम्हारी कविता में खोज लेंगे 
अपने-अपने प्रेम,
अपनी आदतें, अपने रोष!



कुंती जबसे शिवा से मिलकर आईं थी बहुत बेचैन हो रही थी, उसका मन फिर से शिवा को देखने के लिए बेचैन हो रहा था। शिवा इस सब से बेखबर अपनी ज़िंदगी से खुश होकर गीत गा रहा था।साथ ही बड़ी मधुर बांसुरी बजा रहा था।
"मनवा बड़ा बेचैन
नहीं आवे दिल को चैन
आजा पारो छनकाती पायल
मिले नैनों से नैन..."



हम-क़दम के अगले अंक (85 वें ) का विषय है -
शिला 
इस विषय पर आप अपनी रचनाएँ हम तक आगामी शनिवार 24 अगस्त 2019 सायं 3:30 बजे तक इस ब्लॉग पर बायीं ओर दिये गये संपर्क फ़ॉर्म के ज़रिए भेज सकते हैं- 

इस विषय पर 
उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत है कविवर जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य 'कामायिनी' से एक अंश-   

'हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह |

नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन |

दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान |

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा
साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का
होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे
देवदारू दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर
बनकर ठिठुरे रहे अड़े।

अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ,
ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार।

चिंता-कातर वदन हो रहा
पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।'

-जय शंकर प्रसाद 



आज बस यहीं तक 

मिलते हैं फिर अगली प्रस्तुति में। 

रवीन्द्र सिंह यादव 



15 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात भाई...
    बेहतरीन रचना पढ़वाई आपने
    कामायनी प्रसिद्ध महाकाव्य है प्रसाद जी का
    आभार...
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. लाज़वाब रचनायें
    अतिसुन्दर प्रस्तुतिकरण

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. सुबह-सुबह ... सलाम... और सिन्दूरी शाम की चाशनी में लबरेज एक संदेश के साथ जीवन के और उस से उपजी कविताओं के कई रंगों की झलक का संयोजन .... बेहतरीन कलेवा... वो भी बिना ब्रश किये हुए ...

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर प्रस्तुति मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार रवीन्द्र जी

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह!!रविन्द्र जी ,बेहतरीन प्रस्तुति !!

    जवाब देंहटाएं
  7. बेहतरीन प्रस्तुति ।
    सुंदर लिंक चयन ।
    सभी रचनाएं उच्चस्तरिय ।
    सभी रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  8. बेहतरीन प्रस्तुति, जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य की पंक्तियां बहुत दिनों बाद पढी

    मेरी रचना को भी शामिल करने के लिए आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत आनंदित लिन्क हैं सभी ...
    आभार मेरी रचना को जगह देने के लिए ...

    जवाब देंहटाएं
  10. जिंदगी गुजरती जाती है और हम आस लगाये बैठे रहते हैं अच्छे दिनों की..सुंदर भूमिका के साथ श्रमसाध्य संयोजन...आभार !

    जवाब देंहटाएं
  11. वाह बहुत सुंदर।उत्कृष्ट रचनाओं का संगम।सादर।

    जवाब देंहटाएं

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