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रविवार, 18 अगस्त 2019

1493....साथ दें तो धर्म का चलें तो धर्म पर

जय मां हाटेशवरी.....
मुश्किलें पड़े तो हम पे, इतना कर्म कर
साथ दें तो धर्म का चलें तो धर्म पर
ख़ुद पर हौसला रहें बदी से न डरें
दूसरों की जय से पहले ख़ुद को जय करें
हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।
सादर अभिवादन.....
आज गुलजार साहब का जन्मदिन है. गुलजार जिनका जन्म 18 अगस्त 1934 को पाकिस्तान के दीना में हुआ.  ग़ुलज़ार नाम से प्रसिद्ध सम्पूर्ण सिंह कालरा जो के हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध गीतकार भी हैं. इसके अतिरिक्त वे एक गुलजार कवि, पटकथा लेखक, फ़िल्म निर्देशक तथा नाटककार हैं. उनकी रचनाए मुख्यतः हिन्दी, उर्दू तथा पंजाबी में हैं, परन्तु ब्रज भाषा, खङी बोली, मारवाड़ी और हरियाणवी
में भी इन्होने रचनाये की.
आप को आप के इस जन्म-दिवस पर.....
पांच लिंकों का आनंद परिवार की ओर से.....
असंख्य शुभकामनाएं......

जब गुलजार जी का जन्म हुआ था.....
तब भारत पाकिस्तान एक था.....
तब सीमाओं की दिवारें नहीं थी......
हिंदू-मुस्लिम के झगड़े नहीं थे.....
तब सभी केवल  हिंदूस्तानी  थे.....
वंदेमातरम गाने पर विरोध नहीं होता था.....
तब हिंदु-मुस्लिम दोनों गाते थे.....
सारे जहां से अच्छा.....
हिंदुस्तां हमारा.....
मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे



गुलज़ार साहब का जन्म पाकिस्तान के दीना गाँव में 18  अगस्त 1936 में हुआ. अपने पिता की वह दूसरी संतान थे. माँ का उनके बचपन में ही देहांत  हो गया था और साथ उन्हें  अपने पिता का भी प्यार नहीं मिला। गुलजार साहब  नौ भाई-बहन में वो चौथे नंबर पर थे. भारत के बटवारे के समय इनका परिवार पकिस्तान के दीना गाँव को छोड़ कर अमृतसर (पंजाब, भारत) आकर बस गए. गुलज़ार साहब ने अपने जीवन बहुत संघर्ष किया, शुरू में जब वो  मुंबई आये तो उन्होंने वर्ली के एक गेरेज में वे बतौर मेकेनिक काम किया।
और साथ ही कविता लिखने के शौक़ के कारण अपने खाली समय में कविताये लिखते। धीरे-धीरे फ़िल्म इंडस्ट्री में उनकी पकड़ बनने लगी। हुए साथ ही बॉलीवुड सिनेमा से जुड़ गए। 1963 आयी फिल्म बन्दिनी से ही फ़िल्मी जगत की दुनिया में प्रवेश किया जिसके निर्देशक, निर्माता बिमल राय थे और इसी फिल्म के साथ उन्होंने अपने गाने लिखने की शुरुआत की....

गुलज़ार जी भाषा उर्दू तथा पंजाबी हैं परन्तु उन्होंने  ब्रज भाषा, खङी बोली, मारवाड़ी और हरियाणवी में भी अपनी रचनाये लिखी जो आज भी काफी प्रचलित हैं.
वर्ष 2009 में डैनी बॉयल द्वारा निर्देशित फिल्म स्लमडाग मिलियनेयर में उनके द्वारा लिखे गीत "जय हो" के लिये उन्हे सर्वश्रेष्ठ गीत का ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका है।  2002 में सहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष 2004 में भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है। इसी गीत के लिये उन्हे ग्रैमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
 यही नहीं उन्होंने अपनी कई किताबे भी लिखी जिनमे:- 

चौरस रात (1962),
जानम (1963),
एक बूंद चांद (1972),
रावी पार (1997),
रात, चांद और मैं (2002),

गुलज़ार की नज़्मों से मिले 13 फ़लसफे
जिसकी नज़्मों में अहसास इतनी नज़ाकत के साथ सिमट जाता हो कि जैसे चॉंदनी में छिपी आफताब की किरणें। जिसने ज़िंदगी के हर लम्हे को अपनी कायनात में सितारे सा पिरो लिया हो ताकि जब उसका ज़िक्र आए तो वो नज़्म बनकर उतर आए। जिसका बचपन मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू से लबरेज हो और दिमाग़ के कोने में अपनी ख़ासी जगह घेरे बैठा हो। बचपन ने जब-जब मन के दायरों से बाहर झाँका तब-तब गीत, नज़्म, ग़ज़ल पन्नों पर उतर आयी। कितनी क़ाबिल-ए-तारीफ़ है इस शख़्स की समंदर सी गहरायी, जहाँ तमाम
मोती यूँ ही गोता लगाते ही मिल जाते हैं।

किसी ने ठीक ही कहा है कि एक जनम का ज्ञान इंसान के लिए पूरा नहीं पड़ता। कई जनमों की कोशिशों और मेहनत के बाद कोई नायाब फ़नकार पैदा होता है। आत्मा जब पिछला
हिसाब लेकर आती है तो इंसान ख़ुद ब ख़ुद निखरता चला जाता है।

याद किया है तुम्हे
तेरी राहों में बारहा रुक कर
हमने अपना ही इंतज़ार किया
अब ना माँगेगे ज़िंदगी या रब
ये गुनाह हमने एक बार किया

ख़ुदा ...
काले घर में सूरज रखके
तुमने शायद सोचा था मेरे सब मुहरें पिट जाएँगे
मैंने एक चिराग जला कर अपना रास्ता खोल दिया
तुमने एक समंदर हाथ में लेकर मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूर की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ के लमहा-लमहा जीना सीख लिया
मेरी ख़ुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया

मैं सिगरेट तो नहीं पीता
मगर हर आने वाले से पूछ लेता हूँ कि "माचिस है?"
बहुत कुछ है जिसे मैं फूंक देना चाहता हूँ "

गुलजार की नज्‍म 'सूर्य ग्रहण'
धीरे-धीरे पास आते...
और फिर एक अचानक पूरा हाथ पकड़ लेता था,
मुट्ठी में भर लेता था।
सूरज ने यों ही पकड़ा है चाँद का हाथ फ़लक में आज।।

गुलज़ार के अनमोल विचार 
1. आओ सारे पहन लें आईने;
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा,
सबको सारे हसीन लगेंगे यहां।
17. आज बचपन का टूटा हुआ
 खिलौना मिला....
 उसने मुझे तब भी बुलाया था,
 उसने मुझे आज भी रुलाया है...।
18. तेरी सूरत जो भरी रहती है आंखों में सदा
अजनबी लोग भी पहचाने लगते हैं मुझे
तेरे रिश्ते में तो दुनिया ही पिरो ली मैंने।
19. आज कल पांवो जमीन पर नहीं पड़ते मेरे,
 बोलो देखा है कभी तुमने मुझे उड़ते हुए...।
20. खुद से ज्यादा संभाल कर रखता हूं
 मोबाइल अपना...
 क्योंकि रिश्ते सारे अब इसी में कैद हैं।

अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ -"गुलज़ार"
जिन दिनों आप थे
आँख में धुप थे
जिन दिनों आप रहते थे
आँख में धुप रहती थे
अब तो जले ही जल है
ये भी जाने ही वाले है
वो जो था दर्द का करार कहा ?
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ
मैंने मौत को देखा तो नहीं
पर शायद वो बहुत खूबसूरत होगी
कमबख्त जो भी उससे मिलता हैं
जीना ही छोड़ देता हैं


गीतकार, कवि, पटकथा लेखक, फ़िल्म निर्देशक, नाटककार गुलज़ार (संपूर्ण सिंह कालरा) की कलम सीधे दिल पर दस्तख़त करती है। आज (18 अगस्त) गुलज़ार का जन्मदिन है।
हर दौर के युवाओं के पसंदीदा शायर गुलज़ार का जन्म 18 अगस्त 1934 को हिंदुस्तान बंटने से पहले पंजाब के झेलम जिले के दीना गांव में हुआ था। यह गांव अब पाकिस्तान
में है। दिनेश 'दर्द' बताते हैं कि 'जिन दिनो में गुलज़ार का जन्म हुआ था, तब चिनाब, झेलम, सिंधु और रावी का पानी बिना किसी बँटवारे के गुनगुनाता आज़ाद बहता
था। तब न कोई हिन्दू था, न कोई मुसलमान। तब लोग सिर्फ़ हिंदुस्तानी हुआ करते थे। तब 'माचिस' की तीलियाँ या तो चराग़ जलाने के लिए सुलगती थीं, या फिर चूल्हे।
पहाड़ों और आसमान पर भी तब दूरबीनों के पहरे नहीं थे। बर्फीले पहाड़ों से उतरती बर्फ़ में भी, तब रिश्ते आज की तरह ठंडे नहीं पड़े थे। तेज़ 'आँधियों' के ज़ोर
के बावजूद रिश्तों में हरारत रहती थी। तब अज़ान और आरतियों की आवाज़ें भी हर किसी के दिलोदिमाग़ को सुकून की 'ख़ुश्बू' से मुअत्तर कर देती थीं। लोग चाहे किसी
भी मज़हब के हों, कानों में आवाज़ पड़ते ही उनके सिर अदब से ख़ुद-ब-ख़ुद झुक जाते थे। उस वक़्त हर 'मौसम' की 'किताब' सिर्फ़ एक ही रिश्ते का 'परिचय' देती थी,
जिसके तहत हर किसी को, हर कोई अपना-सा लगता था'-

अब पढ़ें.....कुछ मेरी पसंद.....
भारत के जावाज़ जवानों के नाम ....सुखमंगल सिंह
सौ पर भारी एक जवान हो
तलुए तले अब पाकिस्तान हो
तिरंगा इस्लामाबाद में लहरे
वहां तलक अब हिंदुस्तान हो

कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
बदलाव कितना हुआ, किसके मार्फत हुआ, यह अलग चर्चा का विषय है। महत्वपूर्ण बात यह रेखांकित हुई कि हम बदलाव चाहते हैं। इस बदलाव के आयाम बहुत व्यापक हैं, क्योंकि
यह देश अपने आप में एक संसार है। दुष्यंत कुमार की चार लाइनें हैं:-
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी/ शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए/हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में/हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए/सिर्फ
हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं/सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

बच्चे सहेजना चाहते हैं
बच्चे सहेजना चाहते हैं
दरक चुकी भारत माता की तस्वीर
आसमान को अपना समझकर
करना चाहते हैँ
ध्रुव तारे से दोस्ती.......

कहानी: उफान
मैंने एक मीठी से हँसी से उसको अपनी गोद मे जैसे छुपा लिया ,"चल बिट्टू आज मैं तेरे सारे सवालों के जवाब दूंगी । जानती हूँ कि कोई भी बच्चा अपने माता पिता के अच्छे स्वभाव का दोहन होते देख दुखी होता है ,तुम भी हो रही हो । मैं भी मानती हूँ कि डोर को तोड़ना बहुत सरल है परन्तु उसमें लचीलापन बनाये रख कर सन्तुलन साधना थोड़ा मुश्किल है । बस ये लचीलापन ही रिश्तों को मृत होने से रोकता है । तुम जिसको समझती हो कि दूसरा हमारा फायदा उठा रहा है वो ही उनकी कमजोरी और हमारी सामर्थ्य दर्शाता है ,जिसको वो भी मानते हैं । जैसे बीमारियाँ शरीर में रहती हैं और हम उनका इलाज करते हैं वैसे ही खट्टे मीठे रिश्ते भी परिवार में होते हैं

उजली किरण
बात सुहानी कोई कहानी, मुझसे कहेगी रात,
रैन सजेंगे, खोकर स्वप्न में नैन जगेंगें,
अंधियारों से, यूँ इक स्वप्न छीनेंगे,
मिलेगी स्वप्निल, प्रभाकिरण !
कोई उजली किरण, कभी तो छू लेगी बदन!

आज़ादी का तिरंगा ~ कश्मीर
चाह थी, हर जँजीर हट जाए फर्क और मज़हब की
इसी आज़ादी के तिरंगे की, अभिलाषा करता था मैं !!

बेटियों के सम्मान और रक्षाबंधन की अनूठी परम्परा।
एक और दिलचस्प बात रक्षाबंधन के दिन इस गांव की महिलाएं पेड़ों को राखी बाँधती हैं और उनकी सुरक्षा का वचन देती हैं। साथियों, परम्पराओं को प्रकृति और विकास से जोड़ दिया जाए तो हम स्थानीय स्तर पर ही ग्रामीण और शहरी जनजीवन की तस्वीर बदल सकते हैं . कितना अनूठा संबंध है पिपलांत्री के लोगों का अपनी बेटियों और प्रकृति से। देश का प्रत्येक गाँव और शहर पिपलांत्री जैसा आत्मनिर्भर और बेटियों को सम्मान देने वाला हो इस रक्षाबंधन और आज़ादी पर यही शुभकामनाएं है |


आज बस इतना ही.....
ना जाने ये लम्हे हो ना हो
हो भी ये लम्हे क्या मालूम शामिल
उन पलो में हम हो ना हो

वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर
आदत इस की भी आदमी सी है
धन्यवाद.

26 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन प्रस्तुति..
    आज यह अंक संदर्भ अंक बन गया है
    आभार..
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  2. गुलजार साहब को जन्मदिन की हार्दिक बधाई
    उम्दा सराहनीय संकलन

    जवाब देंहटाएं
  3. गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर उनके ऊपर लाजवाब संकलन ।
    बहुत सुंदर हलचल प्रस्तुति।
    सभी रचनाएं बहुत सुंदर ।
    रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. गुलजार जी के जन्मदिवस पर उन्हें शुभकामनाएं। उन पर एक लाजवाब प्रस्तुति के लिये साधुवाद कुलदीप जी।

    जवाब देंहटाएं
  5. गुलज़ार साहब की मजहबों से परे इन्सानी सोच को नमन !

    जवाब देंहटाएं
  6. गुलजार साहब के बारे में संग्रहणीय संकलन । उन्हें जनमदिन की हार्दिक शुभकामनाएं ।

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  7. वाह !लाज़बाब प्रस्तुति 👌👌
    गुलजार साहब जी के जन्मदिवस पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं।
    सादर

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  8. बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  9. वाह
    लाजवाब अंक
    गुलजार साहब को जन्मदिन की अनन्त शुभकामनाएं
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  10. अद्भुत। इस तरह की प्रस्तुतियां आगे भी करें। पुरखों के स्मरण के साथ संततियों का ज्ञान वर्द्धन भी होता है। फिर संस्कार फिर से जी उठते हैं।

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  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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