सादर अभिवादन।
ज़िंदा रहने का बहाना है
ख़ामोशी से गुज़र जाना है,
कोई मुंतज़िर है सुदूर देश
प्रतीक्षा में वक़्त जाना है।
-रवीन्द्र
आइये अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-
जो आग है दिलों में, सम्हालो उन्हें,
पहचानो दुश्मनों को, कर दो खाक तुम उन्हें,
अमन, चैन की, बह चलेगी ऐसी धारा,
जम्हूरियत पर, गर्व होगा दोबारा!
आनेवाला कल हमारा, फिर पुकारेगा दोबारा!
बोए हुए इस पराएपन ने
बहुत से त्रास रचे हैं
न पराए तुम हो, ना पराए हम
हाथ मिलाकर है चलना
हमने आधी आधी रात तक गोवा के समन्दर
से बातें की थीं, गोवा का चप्पा-चप्पा छानते हुए हम खुद को तलाश रहे थे. और जब हम मुठ्ठियों से समेट समेट कर समन्दर जिन्दगी में भरकर वापस लौटे थे तो हम वो नहीं थे जो हम गए थे. समन्दर ने हमसे उलझनें लेकर, हिम्मत और भरोसा देकर वापस भेजा था. लौटने के बाद उसी हिम्मत और भरोसे के साथ जिन्दगी को नयी राहों पर रख दिया था और वही नयी राहें आज तक हाथ थामे चल रही हैं.
ये भारत देश का गौरव है कि यहां नेहरू, इंदिरा, राजीव सभी को भुला दिया जाएगा क्योंकि ये एक वंश परंपरा से जुड़े हुए हैं और इनके वंशजों के पास आज वह वाक चातुर्य नहीं है जिसके धनी मोदी जी हैं और रही वह जनता जिसके लिए ये लोग अपना बलिदान दे गए उस जनता में वह कृतज्ञता नहीं और कुछ जनता का स्वार्थ जिसकी पूर्ति वह वर्तमान सरकार में देखती है और पुराने किए को भुला देती है, वैसे भी ये तो सर्वविदित है कि नीव का पत्थर कोई नहीं देखता सभी को कंगूरे की ईंट ही नज़र आती है.
चलते-चलते 'उलूक टाइम्स' से एक ताज़ा प्रस्तुति आपकी नज़र-
क्यों
नहीं
लिखता
कुछ नया
लिखने जैसा
तेरे जैसे
कई हैं
‘उलूक’
हम-क़दम के चौरासीवें अंक के लिये विषय है-
तस्वीर
इस विषय पर आप अपनी रचना हमारे ब्लॉग पर बायीं ओर दिये ब्लॉगर संपर्क फॉर्म के ज़रिए 17 अगस्त 2019 शनिवार सायंकाल 3:30 बजे तक भेज सकते हैं। चयनित रचनाएँ आगामी सोमवार को प्रकाशित होंगीं।
उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत है कविवर बृज नारायण चकबस्त जी की रचना 'पयामे-वफ़ा'
'हो चुकी क़ौम के मातम में बहुत सीनाज़नी
अब हो इस रंग का सन्यास ये है दिल में ठनी
मादरे-हिन्द की तस्वीर हो सीने पे बनी
बेड़ियाँ पैर में हों और गले में क़फ़नी
हो ये सूरत से अयाँ आशिक़े-आज़ादी है
कुफ़्ल है जिनकी ज़बाँ पर यह वह फ़रियादी है
आज से शौक़े वफ़ा का यही जौहर होगा
फ़र्श काँटों का हमें फूलों का बिस्तर होगा
फूल हो जाएगा छाती पे जो पत्थर होगा
क़ैद ख़ाना जिसे कहते हैं वही घर होगा
सन्तरी देख के इस जोश को शरमाएँगे
गीत ज़ंजीर की झनकार पे हम गाएँगे'
आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे आगामी गुरुवार।
रवीन्द्र सिंह यादव
बेमिसाल प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंराष्ट्रवाद को समर्पित अंक..
शुभ प्रभात..
सादर..
सराहनीय संग्रहनीय संकलन
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
उम्दा संकलन के लिए शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति। आभार रवींद्र जी।
जवाब देंहटाएंवाह!!रविन्द्र जी ,बहुत उम्दा प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंवाह !बेहतरीन प्रस्तुति सर
जवाब देंहटाएंलाजबाब प्रस्तुति करण....
ज़िंदा रहने का बहाना है
ख़ामोशी से गुज़र जाना है,
कोई मुंतज़िर है सुदूर देश
प्रतीक्षा में वक़्त जाना है।
सादर
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय रवींद्र जी, आज के अंक में रचनाये भले कम हैं पर सभी पठनीय और चिंतनपरक हैं। उलूक दर्शन भी नये रंग में है तो पुरुषोत्तम जी की राष्ट्र के प्रति कल्याणकारी भावों से भरी रचनाएँ बहुत शानदार हैं । बहुत दिनों के बाद पल्लवी जी संकलन में नजर आई, बहुत खुशी हुई। दोनों लेख पठनीय हैं। सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनायें और आपको सादर आबहर इस सार्थक अंक के लिए। 🙏🙏🙏🙏💐💐💐
जवाब देंहटाएंबेहतरीन!
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक ओर सुंदर प्रस्तुतिकरम।
शानदार प्रस्तुतिकरण उम्दा लिंक संकलन...
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
सार्थक संकलन।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा पंक्तियों के साथ शानदार भुमिका।
जवाब देंहटाएंबेमिसाल संकलन सभी सामग्री पठनीय सुंदर।
सभी रचनाकारों को बधाई।
उम्दा लिंक संकलन...
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