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मंगलवार, 13 अगस्त 2019

1488...कोई मुंतज़िर है सुदूर देश ...




सादर अभिवादन। 

ज़िंदा रहने का बहाना है
ख़ामोशी से गुज़र जाना है, 
कोई मुंतज़िर है सुदूर देश 
प्रतीक्षा में वक़्त जाना है। 
-रवीन्द्र  

आइये अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें- 

दोबारा.......पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 





जो आग है दिलों में, सम्हालो उन्हें,

पहचानो दुश्मनों को, कर दो खाक तुम उन्हें,
अमन, चैन की, बह चलेगी ऐसी धारा,
जम्हूरियत पर, गर्व होगा दोबारा!

आनेवाला कल हमारा, फिर पुकारेगा दोबारा!






 बोए हुए इस पराएपन ने

बहुत से त्रास रचे हैं
 पराए तुम होना पराए हम
हाथ मिलाकर है चलना







हमने आधी आधी रात तक गोवा के समन्दर से बातें की थीं, गोवा का चप्पा-चप्पा छानते हुए हम खुद को तलाश रहे थे. और जब हम मुठ्ठियों से समेट समेट कर समन्दर जिन्दगी में भरकर वापस लौटे थे तो हम वो नहीं थे जो हम गए थे. समन्दर ने हमसे उलझनें लेकर, हिम्मत और भरोसा देकर वापस भेजा था. लौटने के बाद उसी हिम्मत और भरोसे के साथ जिन्दगी को नयी राहों पर रख दिया था और वही नयी राहें आज तक हाथ थामे चल रही हैं


इंडिया वर्सेस एडवेंचर्स मोदी......कौशल 




  ये भारत देश का गौरव है कि यहां नेहरू, इंदिरा, राजीव सभी को भुला दिया जाएगा क्योंकि ये एक वंश परंपरा से जुड़े हुए हैं और इनके वंशजों के पास आज वह वाक चातुर्य नहीं है जिसके धनी मोदी जी हैं और रही वह जनता जिसके लिए ये लोग अपना बलिदान दे गए उस जनता में वह कृतज्ञता नहीं और कुछ जनता का स्वार्थ जिसकी पूर्ति वह वर्तमान सरकार में देखती है और पुराने किए को भुला देती है, वैसे भी ये तो सर्वविदित है कि नीव का पत्थर कोई नहीं देखता सभी को कंगूरे की ईंट ही नज़र आती है.

चलते-चलते 'उलूक टाइम्स' से एक ताज़ा प्रस्तुति आपकी नज़र- 
  

तेरे जैसे कई हैंउलूकबिना धागे के बनियान लिखते हैं.... डॉ. सुशील कुमार जोशी 





क्यों 
नहीं
लिखता 
कुछ नया 

लिखने जैसा 

तेरे जैसे 
कई हैं 
 ‘उलूक’ 




हम-क़दम के चौरासीवें अंक के लिये विषय है-
तस्वीर   

इस विषय पर आप अपनी रचना हमारे ब्लॉग पर बायीं ओर दिये ब्लॉगर संपर्क फॉर्म के ज़रिए 17 अगस्त 2019 शनिवार सायंकाल 3:30 बजे तक भेज सकते हैं। चयनित रचनाएँ आगामी सोमवार को प्रकाशित होंगीं।  
उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत है कविवर बृज नारायण चकबस्त जी की रचना 'पयामे-वफ़ा'

'हो चुकी क़ौम के मातम में बहुत सीनाज़नी
अब हो इस रंग का सन्यास ये है दिल में ठनी

मादरे-हिन्द की तस्वीर हो सीने पे बनी
बेड़ियाँ पैर में हों और गले में क़फ़नी



हो ये सूरत से अयाँ आशिक़े-आज़ादी है
कुफ़्ल है जिनकी ज़बाँ पर यह वह फ़रियादी है



आज से शौक़े वफ़ा का यही जौहर होगा
फ़र्श काँटों का हमें फूलों का बिस्तर होगा
फूल हो जाएगा छाती पे जो पत्थर होगा
क़ैद ख़ाना जिसे कहते हैं वही घर होगा



सन्तरी देख के इस जोश को शरमाएँगे
गीत ज़ंजीर की झनकार पे हम गाएँगे'

  

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे आगामी गुरुवार। 


रवीन्द्र सिंह यादव 

14 टिप्‍पणियां:

  1. बेमिसाल प्रस्तुति...
    राष्ट्रवाद को समर्पित अंक..
    शुभ प्रभात..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. उम्दा संकलन के लिए शुक्रिया !

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर प्रस्तुति। आभार रवींद्र जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह!!रविन्द्र जी ,बहुत उम्दा प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह !बेहतरीन प्रस्तुति सर
    लाजबाब प्रस्तुति करण....
    ज़िंदा रहने का बहाना है
    ख़ामोशी से गुज़र जाना है,
    कोई मुंतज़िर है सुदूर देश
    प्रतीक्षा में वक़्त जाना है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  7. आदरणीय रवींद्र जी, आज के अंक में रचनाये भले कम हैं पर सभी पठनीय और चिंतनपरक हैं। उलूक दर्शन भी नये रंग में है तो पुरुषोत्तम जी की राष्ट्र के प्रति कल्याणकारी भावों से भरी रचनाएँ बहुत शानदार हैं । बहुत दिनों के बाद पल्लवी जी संकलन में नजर आई, बहुत खुशी हुई। दोनों लेख पठनीय हैं। सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनायें और आपको सादर आबहर इस सार्थक अंक के लिए। 🙏🙏🙏🙏💐💐💐

    जवाब देंहटाएं
  8. बेहतरीन!
    बहुत ही मार्मिक ओर सुंदर प्रस्तुतिकरम।

    जवाब देंहटाएं
  9. शानदार प्रस्तुतिकरण उम्दा लिंक संकलन...
    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत उम्दा पंक्तियों के साथ शानदार भुमिका।
    बेमिसाल संकलन सभी सामग्री पठनीय सुंदर।
    सभी रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
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