होता जा रहा है, उस पर किसी भी समसामयिक, सामाजिक
या राजनीतिक मुद्दों पर होने वाली विचारोत्तेजक बहस पर
आपने कभी गौर किया है?
पर अगर ध्यान दिया जाय तो किसी भी संवेदनशील मुद्दे
पर उनकी असंवेदनशील प्रतिक्रिया पढ़ने को मिल जायेगी।
अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर उनका यह विक्षिप्त
और बदमिजाज आचरण कितना उचित है?
मजबूर करती है आखिर हमारा सभ्य समाज किस
दिशा की ओर अग्रसर है?
का साहित्यिक अभिरुचियों से दूर होने से पनपा
वैचारिकी खोखलापन ही है।
आदरणीय लोकेश जी...
बिखर जाने दे....
अपनी आँखों के आईने में संवर जाने दे
मुझे समेट ले आकर या बिखर जाने दे
मेरी नहीं है तो ये कह दे ज़िन्दगी मुझसे
चंद सांसें करूँगा क्या मुझे मर जाने दे
दर्द ही दर्द की दवा है लोग कहते हैं
दर्द कोई नया ज़िगर से गुज़र जाने दे
आदरणीय गगन शर्मा जी....
सौंदर्य प्रसाधनों में "केसर" के उपयोग का छलावा..
यह इसलिए याद आया क्योंकि कई दिनों से घर में आ रहे पतंजलि के एलोवेरा जेल की ट्यूब पर उसमें मिश्रित सामग्री के रूप में केसर और चंदन के भी होने की बात लिखे होने से कौतुहल तो होता था कि केसर जैसी चीज जिसके कुछ ग्राम की कीमत ही हजारों रूपए है, उसका उपयोग व्यावसायिक दृष्टि से कैसे 70-80 रूपए के उत्पाद में किया जा सकता है ! पर जैसी की हमारे जैसे अधिकाँश लोगों की आदत है कि लिखी बात पर विश्वास कर लेते हैं, आँख मूँद कर ! सो मान लेते रहे कि 'बाबाजी' कह रहे हैं, तो होगा ही, और बात आई-गयी हो जाती थी। पर कल जब एक ट्यूब सामने दिखी तो रहा नहीं गया और छीछालेदर करने पर जो बात सामने आई..... वह यह रही !
आदरणीया प्रीति सुराना जी
साथ दोगी मेरा?
रिश्ते में मौजूद डर का बीज
जो बार-बार उगकर
आतंकित करता है जीवन को,
खत्म हो जाए पल्लवन के पहले ही
यह हानिकारक
अनावश्यक खरपतवार
और फिर दोबारा उगने की हिम्मत न करे,
अब डाल दो मिट्टी पुराने सारे गिले-शिकवों पर...
एक रचना गद्दार शायर की कलम से
मैं ख़ुद ही नहीं चाहता
हमी फेंक आये ख़ुद को सरे दरिया अर
हमी देखते है, के कब बुलबुले ख़त्म हो
चले जाए शोरों शग़ब से कही दूर क्या ?
किसी तरह तो ख़ुद से ये फ़ासले ख़त्म हो
आदरणीय विश्वमोहन जी की रचना
दो पथिक किनारे
सागर से वक्षस्थल पर
पसरा चिर सन्नाटा,
उर-अंतर्मन के स्पन्दन ने
रचा ज्वार और भाटा
आदरणीय पुरुषोत्तम जी की रचना
कोई अंत न हो
जब यूं चुपके से पुरवैय्या लहराए,
कोई खामोश लम्हों मे दस्तक दे जाए,
फिर यूं किसी का गले लग जाना,
चंद लम्हों में उम्र भर की कसमें खाना,
इन लम्हातों का कोई अन्त न हो.....
ध्रुव जी की लेखनी से निकली भक्ति-भाव युक्त भजन
मन श्याम रंग
बन बिम्ब मेरी वो खड़ा ,पत्थर की प्रतिमा में कहीं
है झाँकता मन में मेरे ,बन ह्रदय की धड़कन-सा मेरे।
ब्रह्माण्ड मुख में समात है ,पर चरण धरती पर धरत
जग का तू पालनहार ,पर पालत माँ है, यशोदा बन।
मन श्याम रंग विचार में तज, भूलत है सबको अभी
कुछ नींद में सपने सजत ,चित्त रोअत है अभिभूत बन
आदरणीय सुशील सर का पन्ना...
गलतफहमी
को
खुशफहमी
बना कर
खुद की
खुद ही
नाचना
शुरु हो
जाने वाला
हम-क़दम के तेईसवें क़दम
का विषय...
...........यहाँ देखिए...........
कल मिलना न भूलिएगा विभा दीदी से
श्वेता
बेहतरीन रचनाएँ
जवाब देंहटाएंउत्तम ..अति उत्तम अग्रलेख
शुभ प्रभात सखी
सादर
संग्रहनीय संकलन
जवाब देंहटाएंआज की इस बेहतरीन विविधतापूर्ण प्रस्तुति में मेरी रचना को भी शामिल करने के लिए विशेष आभार।
जवाब देंहटाएंहलचल की प्रस्तुति सुबह सुबह पढना अब तो दिनचर्या में शामिल है और उसपर खुद को भी पढना रोमांचित कर जाता है। शुक्रिया सम्पादकगण।
उषा स्वस्ति,
जवाब देंहटाएंविचारपूर्ण शब्दों के साथ सुंंदर रचनाओं का संकलन।
बहुत बढिया श्वेता जी👌
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। भाषा में अभद्रता और अशिष्टता इस जमाने का वो हथियार बन रहा है जिसे बाँटा जा रहा है हमारे समाज के ठेकेदारों द्वारा युवाओं की सेना को और तर्कविहीन बेलगाम होती हुई बहसों में इसी से युद्ध जीते जा रहे हैं। 'उलूक' के पन्ने को जगह देने के लिये आभार साथ में श्वेता जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुतिकरण
जवाब देंहटाएंउम्दा रचनाएँ
मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंयुवाओं मे बढती अभद्रता अशिष्टता और उच्छंकलता का एक कारण साहित्य से दुरी है तो दुसरी और साहित्य के नाम पर छप रहे स्तर हीन लेख कथाओं उपन्यास और सबसे बडा़ कारण आज की बेहूदा फिल्में जिनमे क्या क्या परोसा जा रहा है शर्म सार करते कथानक चरित्र मां बाप की खिल्ली उड़ाना रीति रीवाजों का माखोल नैतिकता का दीवाला सदाचार गया चुना लेने और यही सब युवा वर्ग अपना रहा है साहिल अभिरूचि का अब समय ही कितनों के पास है खैर श्वेता हर बार की तरह एक सामायिक और जबरदस्त मुद्दे के साथ आपकी लेखनी का सुंदर समन्वय, बहुत शानदार प्रस्तुति, और रचनाऐं बेमिसाल आपकी खोज को दाद देती हूं सभी रचनाकारो को बधाई।
जवाब देंहटाएंसहमत आपकी बात से ... विचार शून्यता बढ़ रही है ...
जवाब देंहटाएंचिंतनशीलता घट रही ही ...
सुन्दर संकलन है आज की रचनाओं का ...
आज अपनी सारगर्भित भूमिका में सूत्रधार श्वेता अत्यंत संजीदे अंदाज़ में नजर आ रही हैं। वाकई स्वस्थ शास्त्रार्थ की सजीव परंपरा वाला यह सहिष्णु समाज आज आंतरिक उद्वेग और अशांत अवसाद का अखेट होता चला जा रहा है। संवेदना सुख रही हैं। सुनने की परंपरा वाचलता के शोर में खो गई है। विचारों की उदारता छद्म बुद्धिजीवियों के कुटिल वाक् व्यूह के दम तोड़ती नजर आ रही है। स्व हावी हो गया है।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता विकृति की उच्छृंखलता और कुटिलता की मानसिक व्याधि से रुग्ण है।
जवाब देंहटाएंऐसे में आवश्यक है शिक्षा के संस्कार और आचरण की सभ्यता को पुष्ट करना। बधाई श्वेता जी! एक अत्यंत अपरिहार्य प्रसंग पर आपकी बेबाक विवेचना का!!!
"मेरा ऐसा मानना है इसका कारण कहीं न कहीं युवा वर्ग
जवाब देंहटाएंका साहित्यिक अभिरुचियों से दूर होने से पनपा
वैचारिकी खोखलापन ही है।"
बिल्कुल सही मानना है आपका.... आज के युवा वर्ग में स्मार्टनेस को लेकर जो प्रतिस्पर्धा उपजी है उसमें वे सभ्यता और शालीनता से कोसों दूर होते जा रहे है। छिछोरी शेरोशायरी को ही वे साहित्य समझ बैठे हैं। गालीगलौज के बिना तो बात ही नहीं करते। यह भी सच है कि सारे युवा तो ऐसे नहीं हैं। कुछ इतने सभ्य और शालीन किशोर भी मैंने पढ़ाए हैं जिनको देखकर मन कहता कि भगवान बच्चे दे तो ऐसे दे।
पर ऐसे किशोरों का भी कॉलेज में पहुँचने पर रंग ढ़ंग बदलने लगता है। ऐसे भी कई अनुभव हुए हैं। गंभीर भूमिका के साथ अच्छी रचनाओं का यह संकलन काबिले तारीफ है प्रिय श्वेता। बधाई स्वीकारें। सभी चयनित रचनाकारों को भी बधाई।
आप सभी महानुभावो का शुक्रिया पढ़ने के लिए , और हलचल के आज के अंक में स्थान देने के लिए तहे दिल से आभारी हूँ, 🙏आप सभी मेरे लिए प्रेरणास्रोत हैं
जवाब देंहटाएंसच्ची और सटीक भूमिका
जवाब देंहटाएंआपकी बात से सहमत हूँ
सुंदर रचनाओं का सुंदर संयोजन
सभी रचनाकारों को बधाई
सादर
श्वेता जी आज का संकलन बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंसभी रचनायें श्रेष्ठ ,सभी रचनाकारों को शुभकामनाएँ
आज का विषय “सोशल मीडिया “ सही बात है श्वेता जी सोशल मीडिया जो समाज का आइना है ,आधुनिक समाज को क्या परोस था है ,वास्तव में “विरोधाभास “ ही पनप रहा है
मात्र जानकारी जुटाना फिर उस पर बहस करना ही सोशल मीडिया का काम तो नहीं ? जानकारी के साथ सभ्य और शालीनता का परिचय भी आव्य्श्क है , विषयों पर चर्चा तो अवश्य होती है परन्तु उसका हल नहीं निकलता ,चर्चा सिर्फ़ चर्चा और विरोधाभास आज का सोशल मीडिया समाज को यही आइना दिखा रहा है यहाँ परिवर्तन की आव्य्श्क्ता है ।