जय मां हाटेशवरी....
स्वागत है आप सभी का......
सुन कर कुछ अजीब सा लगता है......
हिमालय की गोद में बसे.....
शिमला में भी पानी के लिये मारामारी हो रही है.....
आंदोलन हो रहे हैं......
जाने जा रही है......
कारण स्पष्ट है.......
प्रकृति के साथ छेड़छाड़.....
विश्व पर्यावरण दिवस संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकृति को समर्पित दुनियाभर में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है। पर्यावरण और जीवन का अटूट संबंध है फिर भी हमें अलग से यह दिवस मनाकर पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन और विकास का संकल्प लेने की आवश्यकता है। यह बात चिंताजनक ही नहीं, शर्मनाक भी है। विश्व पर्यावरण दिवस संयुक्त राष्ट्र द्वारा सकारात्मक पर्यावरण कार्य हेतु दुनियाभर में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है। पर्यावरण और जीवन का अन्योन्याश्रित संबंध है तथापि हमें अलग से यह दिवस मनाकर पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन और विकास का संकल्प लेने की आवश्यकता पड़ रही है।
यह चिंताजनक ही नहीं, शर्मनाक भी है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर सन् 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्टाकहोम (स्वीडन) में विश्व भर के देशों का पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया। इसमें 119 देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत मान्य किया। इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP)का
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अब पेश है..... कुछ पढ़ी हुई रचनाएं.....
रेणुबाला
रूहानी प्यार --------- कविता --
बदल जायेंगे जब -
सुहाने ये मन के मौसम ,
तनहाइयों में साँझ की
घुटने लगेगा दम -
खुद को बहलायेंगें-
इसको निहार हम !!
इस प्यार की क्षितिज पे
रहेंगी टंकी कहानियां ,
आँचल पाण्डेय
बहरुपी कलयुग
झूठ,लोभ और बैर कथा से
है इसके पाप का घड़ा भरा
पर डर मत तू ए बंदे तबतक
जबतक तू सच के साथ खड़ा
जो साथ निभाए दृढ़ता से सच का
भगवन का उसको साथ मिला
रश्मि शर्मा
पत्थर साहिब और मैग्नेटिक हिल का जादू
माना जाता है कि गुरु नानक देव जी नेपाल, सिक्किम और तिब्बत होते हुए यारकंद के रास्ते लेह से यहाँ पहुँचे। सामने की पहाड़ी पर एक राक्षस रहता था जो यहाँ के लोगों को मारकर खा जाता था। गुरुजी लोगों की पुकार सुनकर इस स्थान पर पहुँचे और यहाँ नदी के किनारे आसन लगाया। लोगों को राहत हुई
पंकज कुमार 'साहेब'
अपने हीं लोगों में कहीं खो गए हम
घायल, रोता हुआ गिड़गिड़ाता रहा
बचते हुए सड़क पार हो गए हम।।
भगवान की दुहाई सुनाई न पड़ी
मगर फ़िल्मी गानों पे रो गए हम।।
अरमान...
चलो आज लगाएं यादों का बाज़ार
बाज़ार ए इश्क़ में बड़ी चालबाज़ी है
छूके देखिए जनाब ये आज भी ताज़ी है
ले लो सस्ती हैं, नहीं क़ीमत ज़्यादा है
ताउम्र साथ रहेंगीं 'अरमान' का वादा है...
राधा तिवारी
तालमेल
राहें भरी है फूल से ये कौन आ रहा।
लगता यही है आज तो दिलदार आ रहे।।
सड़कों पर तो दिखते थे इंसान रात-दिन।
रातों को अब घरों में तो सियार आ रहे ।।
मेरी धरोहर
उम्मीद-ए-वफ़ा की फितरत से शर्मिंदा हूँ मैं,
ग़ज़ब कि दगा के हादसों के बाद ज़िंदा हूँ मैं,
मुहब्बत से ऐतबार उठ गया अच्छे-अच्छों का,
शिकस्त से हौसले आज़माने वाला चुनिंदा हूँ मैं,
अब चलें
हम-क़दम के बाईसवें विषय की ओर..
इस सप्ताह का विषय है
"दहलीज़"
उदाहरण
"दहलीज़"
संस्कारों की भाषा
सभ्यता की दहलीज़ लांघने से पहले
हर शब्द के आगे
एक लक्ष्मण रेखा खींच देती है
...
संवाद मन का मन से
कभी मौन रहकर,
कभी आंखों की भाषा पढ़ती आँखे
बिना कुछ कहे
कितनी ही बातों को पहुँचाते
ये मन के तार इक दूजे तक
दूरियाँ ऐसे क्षणों में बेमानी हो जाती
- सीमा "सदा" सिंघल
रचनाएँ दिनांक 09 जून शाम पाँच बजे तक स्वाकार्य
प्रकाशन तिथिः 11 जून 2018...
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सादरधन्यवाद।
शुभ प्रभात भाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
आभार
सादर
अनोखी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंBahut badhiya prastuti
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत सुंदर प्रस्तुति । आज के दिन कम से कम एक वृक्ष लगाना तो बनता है ...फिर रोज उसकी देखभाल करना ,मैंनें तो लगाया है एक आमृवृक्ष...।
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति कुलदीप जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति.. सभी चयनित रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसस्नेहाशीष संग शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबेजोड़ भूमिका लेखन संग उम्दा संकलन
बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआदरणीय कुलदीप जी -------- आज हलचल में पर्यावरण पर भूमिका के साथ बेहतरीन लिंकों का संयोजन पाकर बहुत ख़ुशी हुई |सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई | मेरे ब्लॉग से मेल में नही आती . शायद सूचना तकनीकी कारण से बंद है अतः मुझे अपनी रचना के लिंकों में होने की खबर नही लगी | पर अच्छा लगा जब अपनी रचना को आज यहाँ पाया | पर्यावरण कहें तो दिन प्रतिदिन ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरे डरा रहे हैं | कहीं नदियाँ भयावहता के साथ तटबंध तोड़ रही हैं तो कहीं हिमालया का दरकना मन को क्म्पाता है | शहरों की बात छोडिये गाँव -गली में भी पुँराने पेड़ इतिहास बन चुके हैं | साधन सम्पन्नता ने एक एक घर में हरेक सदस्य के लिए वाहन उपलब्ध करवा दिये हैं | सभी चलते हैं और प्रदूषण में अपना अहम योगदान दर्ज कराते हैं | पर सबसही होता अगर प्रकृति का पुराना रूप कायम रहता | पेड़ लगाये तो बहुत जाते हैं पर बड़े चंद ही होते हैं | जो हैं उन पर जागरूकता के साथ भी घमासान मचा है | नदियों का प्रदूषण से अस्तित्व ही मिटने को है | हमारे शहर के आसपास दो बड़ी नदियाँ हैं | यमुना और मारकंडा -- दोनों ही पोलीथिन और दूसरे कबाड़ से भरी दिखाई पडती हैं | पर्यावरण पर बड़ी बड़े संगोष्ठियाँ आयोजित की जा रही हैं | पौधारोपण के बड़े अभियान पर करोड़ों रूपये खर्च किये जा रहें पर पता नहीं प्रदूषण ज्यादा है या भ्रष्टाचार ?????भारत में मोक्षदायिनी और सबसे बड़ी पौराणिक महत्व की गंगा के सफाई अभियान का वही पता नहीं कैसा चल रहा है | बहरहाल अपने आसपास अगर थोड़ी सी जगह है तो उसमे छोटा सा पौधा रोप कर भी हम प्रकृति के प्रति अपना स्नेह प्रदर्शित कर सकते हैं | कल रात -- गंगा जी के सन्दर्भ में राकेशजी के ब्लॉग मित्र मंडली पर एक संस्मरण लिखा था उसे यहाँ लिख रही हूँ | --
जवाब देंहटाएंबहुत बचपन में कभी रूडकी शादी समारोह में जाने के बाद सपरिवार हमलोग हरिद्वार गये थे | उस समय गंगा मैया का निर्मल पानी और अनंत प्रवाह जीवन भर के लिए कौतुहल सा बन गया | उसके बाद बरसों नहीं जा पाए पर मई2015 में फिर से माँ गंगे ने बुलाया तो हरिद्वार जाकर नितांत मायूसी हाथ लगी | पानी के नाम गंगा की छोटीसी जल धार ही शेष बची थी | गंदला पानी और उसमे तैरता ढेरों कचरा मन खराब कर गया | घाट पर टहलते मैंने देखा कि लोगो ने अपने घर के शादी के पुराने कार्ड , पुरानी कापियां और अन्य आड़ कबाड़ घाट की शोभा बढा रहा था | पास ही सामान बेच रहे लोगों ने बताया कि ये सामान प्रवाहित करने लाया गया पर शायद वो लोग कर नही पाए | गंगा के पानी में पूरा बिस्तर तैर रहा था -- किसी ने बताया कि ये किसी ने अपने दिवंगत रिश्तेदार का बिस्तर तकिया जलधारा में प्रवाहित किया होगा | इसके पीछे मान्यता है कि दिवंगत को ये मरणोपरांत प्राप्त होगा | ये सब चींजे देख कर सहज ही अंदाजा हो गया कि गंगा की मलिनता के लिए कौन जिम्मेवार है |पहले सीमित यातायात साधनों के चलते लोग अपने दिवंगत जनों की अस्थियाँ प्रवाहित करने अकेले ही जाते थे और सादगी से अस्थि विसर्जन कर लौट आते थे | आजकल सुविधा सम्पन्न लोग गाडी भर जाते हैं और अस्थि विसर्जन के अलावा बहुत सी पूजा सामग्री गंगा के हवाले कर उसके प्रदुषण में अपना अहम योगदान दे कर आते हैं | पुराने जमाने में भी लोग अस्थि विसर्जन करते थे पर उनकी पूजा में सादगी थी -- व्यर्थ के आडम्बर नही |आज एक लेख में मैंने ये भी पढ़ा कि गंगा के किनारे चौदह कृत्य निषेध हैं जिनमे -- उसके घाट पर कपडे धोना , बाल झटकना , थूकना ,धारा में फूल प्रवाहित करना , किनारे पर शौच करना . इत्यादि हैं जो बिलकुल नही करने चाहिए . . पर लोग यही करते हैं आज ही कहीं पढ़ा मैंने कि नदिया बांध दी जाती हैं तो वे धीरे - धीरे समाप्त हो जाती हैं | नदियों की सार्थकता उनके अविरल प्रवाह में है | गंगा के सदर्भ में ये बात और महत्व पूर्ण है क्योकि उसका जल सोम तत्व युक्त है |जिसकी देश समाज को जरूरत है | उसी दिन पिताजी यानि मेरे ससुरजी गंगा की विशाल धारा देखना चाहते थे तो पतिदेव उन्हें गंगा का दर्शन कराने हर की पैडी से बहुत दूर ले गये जहाँ गंगा में पतली धारा शेष थी जिसमें उतर कर उसे आसानी से पार किया जा सकता था | अपने शहर से आने जाने के सोलह घंटे खर्च करके गंगा के नाम पर जो हमने देखा बड़ी मायूसी हुई और हम लौट आये | कितना अच्छा हो कुछ लोग ही सही अपनी तरफ से सार्थक प्रयास करें | जिससे गंगा की मलिनता में कमी आये |सरकार के गंगा के शुद्धीकरण के नारे तो हवा में ही तैर रहे हैं | अब गंगा को बस मानस पूजा की जरूरत है किसी कर्मकांडी पूजा की नही | तभी आने वाली पीढ़ियों के लिए गंगा बची रहेगी | --
अंत में आपको सार्थक प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार और बधाई | सस्नेह --
वाह लाजवाब संकलन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति आदरणीय कुलदीप जी
सभी रचनाएँ उत्क्रष्टता को प्राप्त हैं
सभी को खूब बधाई
मेरी रचना को पुनः स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार
सभी को सादर नमन शुभ रात्रि 🙇
बहुत उपयोगी भुमिका का संकलन।
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार प्रस्तुति, सभी रचनाऐं बहुत सुंदर रचनाकारों को बधाई।
बहुत उपयोगी जानकारी देती लिंक्स |मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद |
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