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सोमवार, 25 अप्रैल 2016

283..कपड़े शब्दों के कभी हुऐ ही नहीं उतारने की कोशिश करने से कुछ नहीं होता

नमस्कार....
विदा होने के कगार पर है..

ये अप्रैल भी..

प्रस्तुत है कुछ पढ़ा हुआ..जो पसंद आया








कुछ अलग सा में...गगन शर्मा
पानी की समस्या सिर्फ हमारी ही नहीं है सारा संसार इस से जुझ रहा है। पर विडंबना यह है कि अपने देश में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें अपने मतलब के सिवा और कुछ भी नज़र नहीं आता। धन-बल और सत्ता के मद में वे कोर्ट के आदेश की भी आलोचना से बाज नहीं आते और अपनी गलत बात पर अड़े रहते हैं...











दीपक बाबा की बक बक....दीपक बाबा
“फूट डालो और शासन करो” का महामंत्र जो उसने अपने पूर्वर्ती विदेशी शासकों से सीखा था वो वही रहेगा.
शासन करना बहुत आसन है, पर देश हित में कार्य करना बहुत मुश्किल ..










कंचन_प्रिया में....कंचन
अमावस की राते नहीं कट रहीं हैं
बिना चाँद के रात यूँ ढ़ल रही है
मेरी जान एक दिन तो दोगे सदा तुम
इसी आश में ज़िदगी कट रही है










मेरी सोच !! कलम तक ....अरुणा
चुरा लिए हैं कुछ पल मैंने ,बचपन की स्मृतियों से 
संग सखियों के व्यय करेंगे ,अपने स्मृति कलश भरेंगे 
स्मृतियों में गोदी दादी की ,हठ है और ठिनकना है 
मक्की की सौंधी रोटी संग ,शक्कर दूध और मखना है 


ये है आज की प्रथम  व शीर्षक रचना का अंश...











उलूक टाईम्स में ..सुशील कुमार जी जोशी
खाली दिमाग के
शब्दों को इतना 
नंगा कर के भी 
हर समय खरोचने 
की आदत से कहीं 
भी कुछ नहीं होता।

.....
आज्ञा दें दिग्विजय को...















6 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति । आभारी है 'उलूक' दिग्विजय जी उसके सूत्र 'कपड़े शब्दों के कभी हुऐ ही नहीं उतारने की कोशिश करने से कुछ नहीं होता' को शीर्षक की जगह देने के लिये ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति
    आभार!

    जवाब देंहटाएं

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