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मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

277.....दिन गरमी के आ गए

जय मां हाटेशवरी....

मैं पुनः उपस्थित हूं...
एक लंबे अंतर्ाल के बाद....
कविता  से ज्यादा प्यार मुझे कहीं नही मिला..
ये सिर्फ वही बोलती है, जो मेरा दिल कहता है…

अब देखिये मेरी पसंद में...
ये चुने हुए लिंक...
गजल
s200/Rajesh4
जिंदगी में दिल से बढ़ कर  हो गयी  दौलत अभी।
नाते-रिश्ते इस जहां के जब इसी पर टिके हैं अभी।।
होठों पर नकली मुसकानें,  दिल में नकली प्रीति ।
नकली चेहरा सामने रखते जग की यह है  रीति।।
ऐसे में  सच क्या  पनपेगा आप  ही बतलाइए ।
जब स्वार्थ ही दिल में पलेंगे आप ही बतलाइए।।


कैसा अरे! श्रृंगार है
Love poems shayari
सादगी है देह की
                 जो रूप का सिरमौर है
सुन्दरी सुलोचना जिस-
               की ना उपमा और है
और मिलन होगा कहां
                     अधर स्वंय अभिसार है


जनाब नीतीश कुमार कांग्रेस मुक्त भारत और संघ मुक्त भारत का यकसां अर्थ नहीं है
संघ प्रतीक है राष्ट्रीय गौरव ,अक्षुण भारतीय संस्कृति और उस सनातन धारा को जो युगों से प्रवहमान है। किस माई के लाल ने अपनी माँ का दूध पीया है जो भारत से
संघ का सफाया कर सके।
जनाब नीतीश  कुमार कांग्रेस मुक्त भारत और संघ मुक्त भारत का यकसां अर्थ नहीं है। कांग्रेस भ्रष्ट तंत्र का प्रतीक बन चुकी थी उसे अपनी मौत मरना ही था ,कांग्रेस
तो  राजनीतिक पार्टी है ,संघ तो भारत को जोड़ने वाली एक सांस्कृतिक संघटन है ,कड़ी है सांस की धौंकनी है जन मन  की।
 

कविता - काव्य कोकिला - मालिनी गौतम
गाना चाहती हूँ गीत मेरी आजादी के, जमीन के साथ-साथ आसमान में भी पसारना चाहती हूँ मेरी जड़ें,..... लेकिन........मेरी फैलती हुई जड़ें शायद हिला देती हैं उनके
सिंहासनों को....., मेरे आजादी के गीत शायद उँडेलते हैं गरम-गरम सीसा उनके कानों में.... तभी तो घोंट दी जाती है मेरी आवाज,... .......................... सदियों
पहले भी, एक थेरियस ने किया था बलात्कार फिलोमेला का काट डाली थी उसकी जबान. अपने देवत्व के बलबूते पर बना दिया था उसे ‘काव्य-कोकिला’ .............बिना जीभ
की ‘काव्य-कोकिला’ सिलसिला आज भी जारी है आज भी मैं हूँ जीभ बिना की कोकिला ताकि यूँ ही सदियों तक गाती रहूँ और कोई न कर सके अर्थघटन मेरे काव्य का...
कुण्डलियाँ -- दिन गरमी के आ गए
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नभ में बनकर भाप, तपिश से दिन घबराये
लाल लाल तरबूज, कूल, ऐसी मन भाये
 कुदरत का उपहार,  वृक्ष की शीतल नरमी 
रसवंती आहार, खिलखिलाते दिन गरमी .



मेरा वजूद तब मुकम्मल नहीं होता
ये बरसात धूप हवायें सब हवा है
जब तलक तू मेरे शहर में नहीं होता।
शाम रोशन कभी हो नहीं पाती
जो तू चरागों विस्मिल नहीं होता।
मैं पतंगा हूँ, तेरे होने से मै हूँ हमेशा
जो तू नहीं होता तो मैं नहीं होता।


आज  बस यहीं तक...
फिर मिलते हैं...



कुलदीप ठाकुर


3 टिप्‍पणियां:

  1. पांचों लिंक शानदार और अद्वितीय है। मेरी लिंक को शामिल करने के लिए शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं

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