आज की प्रस्तुति का आरंभ...
अटल जी की इस कविता के साथ...
कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस–नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग–अंग में जोश झलक।
ये - बंधन चिरबंधन
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जाएँ सभी।
यह भूख – भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।
क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।
हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।
अरे ! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।
रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।
पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया?
रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है?
मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी?
सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बंध जाएँगे ?
अरे! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।
हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।
रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।
अब चलते हैं चर्चा की ओर...
संस्कृति
Praveen Pandey
आज कुछ राक्षस घिनौने,
भ्रमों के आधार लेकर,
युगों के निर्मित भवन को,
ध्वस्त करना चाहते हैं ।।
यदि विचारा, यह धरातल तोड़ दोगे,
सत्य मानो कल्पना छलती तुम्हें है ।
ध्वंस का विश्वास मरकर ही रहा है,
वह जिया यदि, मात्र स्वप्नों के भवन में ।।
फागुन के रंगों में रंगी दो कुण्डलियाँ
शालिनी रस्तौगी
बनठन कैसी सज गई, खिला धरा सुरचाप।
रंग फुहारें तन पड़ीं, मिटा हिया का ताप ।।
मिटा हिया का ताप, कि खेली उन संग होली।
भीज गए सब अंग, खिला मन बन रंगोली।।
मन ही मन में राग, दिखाए झूठी अनबन ।
पिया मिले जब संग, फाग मैं खेलूँ बनठन ।।
208. स्वेटर
Onkar
ऐसा करोगे तो सब खो दोगे,
कुछ भी हासिल नहीं होगा,
सिर्फ़ धागे रह जाएंगे हाथ में,
जिन्हें तुम पहन नहीं पाओगे.
जब बंधन के फंदे लगते हैं,
तभी प्यार का स्वेटर बनता है.
देश का चरमराता आर्थिक तंत्र
डॉ. महेश परिमल
देश कमजोर हो रहा है, तो इसकी जवाबदारी सरकार की खुद की है। महंगाई कम नहीं की जा सकती। अब तो पूरा आर्थिक तंत्र ही बरबादी के कगार पर खड़ा हो गया है। अंदर ही
अंदर यह चर्चा है कि सरकार वित्त मंत्री को बदलकर उनके स्थान पर किसी नए आर्थिक विशेषज्ञ को लाना चाह रही है। यहां भी मोदी सरकार ने पिछली सरकार की तरह ही काम
किया है। यूपीए सरकार के समय भी मनमोहन सिंह जैसे आर्थिक विशेषज्ञ होने के बाद भी पी. चिदम्बरम उनसे सलाह नहीं लेते थे। जिस तरह से चिदम्बरम एरोगेंट थे, ठीक
उसी तरह जेटली भी एरोगेंट हैं। आज भले ही जेटली मोदी के राइट हेंउ हों, पर सच तो यही है कि उनकी करीबी ही देश को आज इस मुहाने पर ले आई है। अब तो समय आ गया
है कि देश का आर्थिक तंत्र बचाए रखने के लिए सख्त से सख्त कदम उठाने ही होंगे। यदि इसमें जरा भी देर हुई, तो लोग किसी को भी माफ करने की स्थिति में नहीं होंगे।
मेनाल, भीलवाड़ा
parmeshwari choudhary
मँदिर परिसर में कई विदेशी पर्यटक हैं। उन्हीं में से कोई अपने गाइड से पूछता है ---Is the Govt. planning to rebuild it ? कुछ खण्डित ढाँचों और भग्न मूर्तियों
को देख कर शायद उसके मन में यह सवाल आया होगा। पर अब ऐसे स्थापत्य की रचना कहाँ सम्भव हैतक...
। हम तो इन नायाब कृतियों के उचित संरक्षण और इन पर गौरवान्वित होने
की भी क़ूवत नहीं रखते।
आज बस यहीं तक...
कल फिर मिलते हैं...
धन्यवाद।
सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया हलचल लिंक प्रस्तुति हेतु आभार !
जवाब देंहटाएंकाफी से अधिक आच्छा
जवाब देंहटाएंसादर