नहीं चाहता रहना जग में, बन कर मैं उपासक धन का
मैंने भी ऋषियों की भांति, लिया आश्रय शुद्ध धर्म का
पूज्य पिता का कार्य करूँगा, प्राणों का भी नहीं लोभ है
पूर्ण हुआ ही समझो इसको, इससे बढ़कर नहीं धर्म है
यद्यपि नहीं कहा उन्होंने, फिर भी वन में वास करूँगा
मुझ पर है अधिकार तुम्हारा, आज्ञा का पालन करूँगा
किन्तु न मुझसे कहकर तुमने, कहा पिता से इस कार्य को
कष्ट दिया उनको, लगता है, नहीं जानती कुछ तुम मुझको
कौसल्या माँ से लूँ आज्ञा, सीता को भी समझा-बुझा लूँ
इसके बाद आज ही मैं, दंडक वन को प्रस्थान करूं
भरत करें राज्य का पालन, सेवा करें पिता की वह
ऐसा प्रयत्न सदा तुम करना, क्योंकि धर्म सनातन है यह
श्रीराम का वचन सुना तो, दशरथ हुए अति व्याकुल
कुछ न बोल सके दुःख से वे, फूट-फूट कर रोये केवल
महातेजस्वी श्रीराम तब, कर प्रणाम पिता-माता को
बाहर आये उस भवन से, निज सुहृदों से मिलने को
अधिक व्यस्तता के चलते...
आज दीदी हलचल न लगा सके...
इस लिये पेश है...
मेरी पसंद के पांच लिंक...
कवि वहां स्थान बनाता
जहां सूर्य तक पहुँच न पाता |
अस्वस्थ अनियंत्रित विचार
उनसे उपजे शब्द वाण
ऐसे प्रहार करते
मन में दरार पैदा करते |
अर्थ का अनर्थ होता
किसी का भला न होता
मन अशांत होता जाता
जब शब्दों का दंगल होता |
उपहार देने की चाहत का ,एक ही है उसूल
उसकी कीमत से कई गुना, करना है वसूल
आधुनिक दिवाली का क्या हो गया है स्वरुप
दिखावे में है सौंदर्य और राम आदर्श हुए करूप
प्रभु राम की अयोध्या वापसी से हुआ था इसका आगाज़
क्या आज की पीढ़ी को है इसका जरा सा अंदाज
आज का बेटा राम नहीं, और न ही दरसरथ हुए बाप
सत्य, मर्यादा ,और संस्कार हुए बीते दिनों की बात
हाँ समाज या व्यवस्था में किसी भी बुराई के खिलाफ विरोध करना हर व्यक्ति का अधिकार है और वह अपने अपने तरीके से उसे करने के लिए स्वतंत्र भी है परन्तु वहीँ
एक खास क्षेत्र के सम्मानित नागरिक का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने सबसे प्रभावी तरह से उसका विरोध करे जिसका कि कोई सार्थक परिणाम निकले। अब यदि सीमा पर कोई
आपत्ति जनक वाकया होता है और एक सैनिक घर में बैठ कर अपनी डायरी में लिखकर कहे कि मैं इसका विरोध करता हूँ तो क्या फायदा। उसका तो फर्ज है कि सीमा पर जाकर लड़े.
यानि तलवार के सिपाही को तलवार से और कलम के सिपाही को कलम से लड़ना चाहिए।
जो सम्मान कभी कृतज्ञ होकर प्राप्त किया था वह लौटाने से अच्छा होता कि कुछ ऐसा लिखा जाता जिससे लोगों को सोचने में नई दिशा मिलती। जिन लोगों की वजह से सम्मान
मिला, वह मार्गदर्शन के लिए अपने प्रिय रचनाकार की ओर देखते हैं, तो बेहतर होता रचनाकार अपना वह फ़र्ज़ निभाते।
साहित्य रचे लेकिन हाल के दिनों में कुछ साहित्यकारों में ऐसी हताशा दिखी कि उन लोगों ने सम्मान लौटाने का एक सामूहिक कार्य कर जैसे यह जता दिया कि उनकी लेखनी
में धार कुंद हो गयी है, वे समर्पण की मुद्रा में आ गये जबकि उन्हें संघर्ष और समाज सुधार के लिए सौहार्द का संदेश देने की मुद्रा में आना चाहिए था। वे आंदोलन
करें, प्रधानमंत्री से मिलें, उन्हें सुझायें कि यहां-यहां गलत हो रहा है इसमें यह किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री उनकी बात ना मानते, कोई कदम ना उठाते तब वे
कोई भी कड़ा कदम उठा सकते थे। उन्होंने तो किसी से मिले, बात किये बगैर ऐसा कदम उठा लिया। उनका उठाया गया यह कदम उनके व्यक्तिगत लाभ में हो सकता है लेकिन यह
देश के हित में नहीं था। ऐसा करके उन्होंने किसी सरकार या किसी पद का जितना नुकसान नहीं किया उससे ज्यादा देश का नुकसान किया।
मै तुम्हे नाम से नही पहचानता हूँ| क्यों कि नाम तो बस एक लेबल होता है| एक औपचारिकता| तुम्हे मै उससे गहन तल पर जा कर देखता हूँ| मेरे लिए तुम पहले से ही अनाम
हो| शुद्ध प्रसन्नता! यह तुम्हारा नाम होना चाहिए! आज तुम्हारी सभी यादों को दोबारा जीने का प्रयास करता हूँ| पर शुरू कहाँ से करू, यही समझ नही आ रहा है| अथाह
महासागर! और हम मात्र एक तट से उसके एक सीरे को देखते हैं, ऐसी स्थिति है|
मै तुम्हे नाम से भी नही पुकार सकता हूँ| क्यों कि नाम भी तो एक व्यावहारिक लेबल तो होता है| एक प्रतिक मात्र| समाज द्वारा दिया गया| बहुत उथला प्रतिक तो होता
है वो| तुम्हारा अस्तित्व उससे कितना गहन! नाम तो उपरी सतह की पहचान! मै फलां फलां व्यक्ति| मै कौन? तो मै फलां व्यक्ति| क्ष गाँव में रहनेवाला; य परिवार का|
अ और ब का बेटा| वास्तव में समाज द्वारा दी गई यह पहचान अनामिक अस्तित्व पर डाली हुई सुविधा की चद्दर तो है| वास्तविक पहचान कितनी गहन होती है! जीवन में तुम
आयी और तुम्हारे साथ अपनी असली पहचान जानने की- स्वयं की खोज करने की प्रेरणा और बढ़ी...
धन्यवाद।
सुप्रभात,
जवाब देंहटाएंसुन्दर हलचल के लिए बहूत-बहूत बधाई |
आभार भाई कुलदीप जी
जवाब देंहटाएंशुभ प्रभात
सादर
सुन्दर हलचल कुलदीप जी
जवाब देंहटाएंसुंदर विचार सरणी बहाते लिंक्स..बहुत बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंबढिया प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंहार की खुशियाँ
जवाब देंहटाएंयह जो भारत है ना जब किसी को बिठाता है तो पलकों पर भी बिठा लेता है लेकिन जब पलकों पर बेठने वाला ही आँखों से छेड़खानी करे तो फिर पटकना भी बहुत अच्छी तरह जनता है
यही आज बिहार मैं हुआ यह पहली बार हुआ है जब किसी के जीतने के ख़ुशी मनाने के बजाये किसी के हारने पर ज्यादा ख़ुशी मनाई जा रही है ....और ऐसा होना भी लाजमी था
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस चुनाव के आक्रमक भाषणो मैं सब कुछ था गाय थी दादरी की घटना थी लेकिन बिहार नहीं था जिसका नतीजा सबके सामने है
सच कहा जाये तो यह प्रधानमंत्री की ही हार है मोदी जी ने पूरी ताक़त जो लगाई थी उन्होंने और पूरी पार्टी ने मिलकर लगभग 900 रेलियाँ की और BJP के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह पूरी तरह से बिहार में डटे रहने के बावजूद हार गए ....
याद रखना चाहिए की हर बार विजय रथ का जुमला नहीं उछाला जा सकता .विकास भाषणो में नहीं
असल में करके दिखाना पड़ता है ..जिस विकास का मुद्दा 2014 में उठाया गया था वो बिहार चुनाव आते आते धरातल तक पहुँच गया ..अमित शाह और उसके सिपहसलारों को बिहार के परिणामों ने बता दिया की मुस्लिमो का नाम लेकर हिन्दुओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिशें कहीं भी सफल नहीं हो सकती
सच है की बिहार में BJP की हार भारत के आने वाले भविष्य की राह तय करेगी .....
वजीरों को भी तो रास्ता मालूम होना चाहिए “साहेब”
सिर्फ काफिले ही तय नहीं करते सियासत की मंजिल