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रविवार, 1 नवंबर 2015

किसी घर में नहीं जल रहा है दिया----अंक 106

अचानक भाई कुलदीप की चयनित कड़िया
न जाने कहा चला गई
चलिए कोई बात नहीं
वह शाम को अपके समक्ष होगी
तलाश जारी है...

लुत्फ उठाइए इन कड़ियों की रचनाओं का....


हाथ थामें दूर साजन आज जाना 
साथ दे कर प्यार को अब तुम  निभाना

राह मुश्किल ज़िंदगी की जान लो तुम
छोड़ कर अब तुम हमें मत दूर जाना


है  इरादा  हमें  मिटाने  का
तो  हुनर  सीख  लें  सताने  का

वो  कहीं  जान  को  न  आ  जाएं
कौन  दे  मश्विरा  निभाने  का


जिंदगी के मोड़ पर
जब सारी दुनिया
सो जाती है स्वप्नों की गोद में
तब मैं इन्तजार करता हूँ
तुम्हारे आने का


मुश्किलों को हौसलों से पार कर
ज़िन्दगी दुश्वार लेकिन प्यार कर

सामने होती मसाइल इक नयी
बैठ मत जा गर्दिशों से हार कर


मर चुका है रावण का शरीर
स्तब्ध है सारी लंका
सुनसान है किले का परकोटा
कहीं कोई उत्साह नहीं
किसी घर में नहीं जल रहा है दिया
विभीषण के घर को छोड़ कर ।


लीजिए हाजिर है फटाफट प्रस्तुति
खोई हुई रचनाओं की कड़ियाँ

मिलते ही...
सांध्य संस्करण के रूप में आपके समक्ष होगा

सादर

आज्ञा दें यशोदा को
तलाश पूरी हुई
कड़ियां मिल गई
आनन्द लीजिए एक लम्बी प्रस्तुति का...

कभी कभी वो भी हो जाता है... जिसकी उमीद नहीं होती...
चलो होनी बस किसका बस चलता है...
ये रहे मेरे द्वारा चयनित कुछ लिंक...

किसी ने सत्य ही कहा है...
किसी भी राष्ट्र की एकता, अखंडता व सार्वभौमिकता बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकता का होना अनिवार्य है
भारत  की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए हर एक भारतीय को जात-पात व संप्रदायवाद से मुक्त होकर आपसी भाईचारा को मजबूत करने की
जरूरत है
सूरज के सातों रंग
मिलते हैं जब एक साथ
तभी तो होता है प्रकाश
छूमंतर हो जाती है
अनन्त तमराशि
मुदित होती है
इकाइयों में बिखरी
समूची मानवता
इकाइयों से खिसक कर
दहाइयों, सैकड़ों,
हजारों, लाखों
और करोड़ों में
जब
होती है एकाकार
तभी तो होता है
राष्ट्रीय एकता का
जीवंत प्रतिमान साकार
कन्याकुमारी में
होने वाली
लहरों की पदचाप
सुन लेता है
संवेदनशील हिमालय
उस के अन्तस की पीड़ा
पिघलती है
और
बह उठती है
पतित पावनी गंगा बनकर
करोड़ो की पीड़ा से
द्रवित होते हैं करोड़ों
करोड़ों के आनन्द से
प्रफुल्लित भी
होते हैं करोड़ों
राष्ट्रीय एकता का
इतना विशाल सेतु
है भी तो नहीं
विश्व में
और कहीं
तभी तो बनाया है
प्रकृति ने
अपना
पालना यहीं॥

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 गैंगरेप एक ऐसा अपराध है जिसके लिए निर्विवाद रूप से मृत्युदंड का प्रावधान होना ही चाहिए क्योंकि एक नारी शरीर किसी एक की उत्तेजना को भले ही एक समय में
बढ़ा दे किन्तु एक समूह को एकदम वहशी बना दे ऐसा संभव नहीं है ऐसा सोची समझी रणनीति के तहत ही होता है और जहाँ दिमाग काम करता है वहां दंड भी दिमाग के स्तर
का ही होना चाहिए दिल के स्तर का नहीं और ऐसे में इस मामले के पांचों आरोपियों के मृत्युदंड के साथ ही गैंगरेप के समस्त मामलों में मृत्युदंड का ही प्रावधान
होना चाहिए
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हम हिन्दी का समुद्र में निर्यात कर देगें
पर तुम पर आंच नहीं आने देंगे,
क्योंकि हिन्दी की उपज के ढेर लगे
पड़े हैं
और खपत रत्ती भर भी नहीं,
तुम हिन्दी दिवस पर व्यर्थ डर जातीं,
ओ मायाविनी ! तुम भारत से कभी नहीं जा सकतीं।
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वक्त की डोर हाथों से छुटती रही
वो हमें, हम उन्हें आजमाते रहे
अज्म ले कर चले थे रहे इश्क में
बस क़दम बर क़दम हम उठाते रहे
------------------------------------
मैं सोती रही, रात दुलराती रही
सारी रात देखती रही
वो ही सुनहरा ख्‍़वाब
जो अब ख्‍़वाब में ही तब्‍दील होकर रह गया....


आज के लिये बस इतना ही...
मिलते रहेंगे...
धन्यवाद।



9 टिप्‍पणियां:

  1. आभार कुलदीप भाई
    आज की लम्बी प्रस्तुति
    एक इतिहास बन जाएगी
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार दीदी आप का...
      सत्य ही कहती हैं मां....
      मैं बचपन ही से सारा काम हड़बड़ी में करता हूं....
      मुझे अपने काम पर बहुत विश्वास होता है...

      शायद इसी लिये कयी बार काफी घाटा भी होता है...
      आज भी हुआ...
      आभार आपने याद दिला दिया...

      हटाएं
  2. अच्छी हलचल। सुन्दर लिंक्स। मेरी रचनाएँ शामिल करने के लिए ह्रदय से आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छी हलचल। सुन्दर लिंक्स। मेरी रचनाएँ शामिल करने के लिए ह्रदय से आभार।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढ़िया लिंक्स-सह हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बढ़ि‍या लिंक्‍स...मेरी रचना को शामि‍ल करने के लि‍ए आभार..

    जवाब देंहटाएं
  6. अच्छी हलचल प्रस्तुति हेतु आभार !

    जवाब देंहटाएं

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