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बुधवार, 18 नवंबर 2015

123---अकादमी पुरस्कार वापस करना कितना प्रासंगिक

जय मां हाटेशवरी...
गौरतलब है कि साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लौटाने के घटना क्रम पर
हिंदी ब्लॉगों पर भी खूब हलचल हुई...
आज के पांच लिंक भी...इसी हलचल से...
पर पहले जाने  दोनों पक्षों की राय...
इन 2 रिपोर्टों में...

स्वयं को स्वायत्त घोषित करने वाली अकादमी, जिसके देश भर से बीसियों अलग-अलग क़ाबिलियत और विचारधाराओं के सदस्य हैं, जिनमें से कुछ केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा नामज़द वरिष्ठ आईएएस स्तर के सरकारी अफ़सर भी होते हैं, जिसका एक-एक पैसा संस्कृति मंत्रालय से आता और नियंत्रित होता है, अब भी साहित्य को एक जीवंत, संघर्षमय रणक्षेत्र और लेखकों को प्रतिबद्ध, जुझारू, आपदाग्रस्त मानव मानने से इनकार करती है.
आज जिस पतित अवस्था में वह है उसके लिए स्वयं लेखक ज़िम्मेदार हैं जो अकादमी पुरस्कार और अन्य फ़ायदों के लिए कभी चुप्पी, कभी मिलीभगत की रणनीति अख़्तियार किए रहते हैं.
विष्णु खरे वरिष्ठ पत्रकार और कवि की विस्तृत रिपोर्ट पढ़ने के लिये...
यहाँ क्लिक

ये विरोध अभूतपूर्व है. आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब इतने बड़े पैमाने पर लेखकों ने अपने सम्मान लौटाए हैं या अपने पदों से इस्तीफ़े दिए हैं. इसका संदेश पूरी दुनिया में गया है. कश्मीर से लेकर केरल तक जो अभूतपूर्व एकजुटता लेखकों ने बर्बरता के ख़िलाफ़ दिखाई है, वो इस बात की तसल्ली भी है कि मुखौटों और बुतों के बाहर भी जीवन धड़क रहा है और बेचैनियों का ताप बना हुआ है. शिव प्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए की विस्तृत रिपोर्ट पढ़ने के लिये...
यहाँ क्लिक


लेखक का विद्रोह बनाम सत्ता का अहंकार
ललित सुरजन
दो बातें पते की कहीं। एक तो उन्होंने कहा कि पुरस्कार कोई उधार नहीं था, जिसे लौटाया जाता। मैं कहना चाहता हूं कि पुरस्कार वाकई आप पर समाज का उधार है। उसके साथ कुछ अपेक्षाएं जुड़ी होती हैं उन्हें पूरा करने पर ही आप उऋण होते हैं। एक लेखक को गाढ़े वक्त में समाज को राह दिखाना चाहिए। यह उससे सबसे बड़ी अपेक्षा है। शायद शुक्लजी की दृष्टि में वह गाढ़ा वक्त नहीं आया। उन्होंने दूसरी बात कही कि जीवन भर पुरस्कार को सलीब की तरह ढोते रहेंगे। आमीन। लेकिन क्या यह तुलना तर्कसंगत है। कोई भी अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि दंडाधिकारी के आदेश से सलीब ढोता है। तुलसीदास के मुताबिक यह देह धरने का दंड भी हो सकता है। जो बात विनोद भाई कह रहे हैं उसका यह मतलब निकाला जा सकता है कि पुरस्कार वापिस न करने पर उनसे प्रश्न किया जाएगा कि आप क्यों पीछे रह गए। हां, सवाल शायद पूछा जा सकता है, लेकिन उसकी परवाह
करने की आवश्यकता नहीं है। हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपने मनोनुकूल निर्णय ले। मैं पुरस्कार वापिस न करने वाले सभी मित्रों से कहना चाहूंगा कि यह सलीब नहीं है। अगर आपके मन पर इसका बोझ नहीं है तो मत उतारिए।
 

अकादमी पुरस्कार वापस करना कितना प्रासंगिक 
संजय त्रिपाठी
          मृदुला गर्ग आशंका व्यक्त करती हैं कि सरकार के स्थान पर साहित्यकारों की अपनी विधिवत निर्वाचित स्वायत्त संस्था को प्रहार का केन्द्र बनाकर उसे कमजोर किया जा रहा है। साहित्यकार स्वयं आपस में झगड़ कर सरकार के लिए स्वायत्त संस्था को अधिकृत कर लेने का रास्ता साफ कर रहे हैं।


विचारधारा की असहिष्णुता
संजय कुमार
अन्य अकादमियों में सरकार अध्यक्ष नियुक्त करती है और इसमें निर्वाचित होता है। साहित्य अकादमी के पहले अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे और वो इसके लिए चुने गए थे ना कि नियुक्त हुए थे। उन्होंने लेखकों से कहा था कि आप लोगो ने मुझे चुना है क्योंकि मुझे आप लेखक मानते है। हलांकि उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा नही किया और उपाध्यक्ष को बाद में अध्यक्ष बनवाया। इस तरह यह देश की सबसे बड़ी स्वायत्त और लोकतांत्रिक संस्था है। अब सोंचिए जिस अकादमी की ऐसी परंपरा रही हो उसके द्वारा दिए गए पुरस्कार को लौटाना क्या उसका अपमान नही है क्या? अगर किसी साहित्यकार को किसी तरह की समस्या थी तो इसको साहित्य अकादमी के सामने उठा सकता था। जिन विषयों पर पुरस्कार वापस किया गया उस पर साहित्य अकादमी की क्या प्रतिक्रिया आ रही है इसका इंतजार तक नही किया गया। उन लोगों ने अकादमी से ये पूछने का कष्ट तक नही किया कि अकादमी इस विषय पर क्या सोंचती है। साहित्य अकादमी ने उन साहित्यकारों का सम्मान किया था, उन्हें भी अकादमी का सम्मान करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नही हुआ। बात घूम फिर कर विचारधारा पर आ जाती है कि देश में परस्पर विरोधी विचारधारा के लिए भी जगह होनी चाहिए और ये बात सिर्फ एक पक्ष पर लागू नही होती है।



सम्मान मत त्यागें, अनफ्रेंड या अनफालो करते रहें
चेतन चावला
पर संवेदनशील होने के लिए कैसे किसी को बाध्य किया जा सकता है?
घर वापसी हो या सम्मान वापसी, सभी बुद्धिजीवी अपना निर्णय स्वयं करें।  मुझे तो कोई सम्मान मिला नहीं, लेकिन भविष्य में सम्मान मिलने की संभावना को जीवित रखते
हुए सोचता हूँ कि घोषणा कर दूँ कि अगर मुझे कोई सम्मान दिया जाएगा तो मैं उसे पूरे आदर और सम्मान के साथ सहेज कर रखूँगा, कभी वापिस नहीं करूंगा, अपनी वसीयत में भी निश्चित कर जाऊंगा कि कोई भी उस सम्मान को विरोधस्वरूप वापिस न करे।  जरा सोचिए, सरकार या अकादमी इन सम्मान प्रतीकों को कहाँ रखेगी ? वैसे भी जो सम्मान आपको दिया गया था, वह दीर्घ अवधि में आपके द्वारा किए गए साहित्यिक-सामाजिक कार्यों के लिए था, न कि किसी घटना पर भूतकाल में आपकी प्रतिक्रिया के लिए।
विरोध के नए तरीके की मार्केटिंग भी कर ली जाये, सम्मान मत त्यागें, अनफ्रेंड या अनफॉलो करते रहें।


मझधार
चन्दर मोहन
देश के बुद्धिजीवियों तथा साहित्यकारों द्वारा इस्तीफों का सिलसिला जारी है। एक भेड़चाल शुरू हो गई है। बहुत लोगों की अंतरात्मा जाग उठी है। उनकी शिकायत है कि देश के अंदर असहिष्णुता बढ़ रही है। बुद्धिजीवी तथा साहित्यकार होने के नाते उनसे और बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है इसलिए विरोध जताने के लिए वह अपना इस्तीफा दे रहे हैं। एमएम कालबुर्गी जैसे तर्कवादी लेखक की हत्या निंदनीय है। हमारी विभिन्नता ही हमारी ताकत है। भारत का अभिप्राय ही यह है। सवाल उठने चाहिए। अगर किसी का तर्क पसंद न हो तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसकी हत्या कर रास्ते से हटा दिया जाए। दादरी की घटना और भी भयानक है जहां 100 लोगों की भीड़ ने एक व्यक्ति को केवल इसलिए मार दिया क्योंकि अफवाह थी कि उसके घर में गौ मांस है। लेकिन सवाल उठता है कि इससे पहले भी तो ऐसी घटनाएं इस देश में होती रही हैं तब यह सज्जन क्यों खामोश
रहे? नयनतारा सहगल ने यह सिलसिला शुरू किया उनसे दो सवाल किए जा सकते हैं। (1) उन्हें 1986 में यह सम्मान मिला था जिससे दो साल पहले अर्थात् 1984 में सिख विरोधी दंगे हुए थे। उस वक्त उन्होंने विरोध प्रकट क्यों नहीं किया? (2) उनका परिवार इस बात पर गर्व करता है कि वह कश्मीरी हैं फिर जब कश्मीरी पंडितों को जबरदस्ती कश्मीर से निकाला गया उस वक्त उन्होंने विरोध में साहित्य अकादमी से इस्तीफा क्यों नहीं दिया? 14 सितम्बर 1989 को पंडित टिका लाल टपलू की हत्या से वहां हत्याओं, बलात्कार तथा लूटपाट का सिलसिला शुरू हुआ। मस्जिदों से घोषणा की गई कि वह निकल जाएं नहीं तो उन्हें खत्म कर दिया जाएगा।




हलचल तो बहुत हो रही है...
हो भी  क्यों न...
ब्लॉगर भी तो साहित्यकार ही हैं न...
इस सारे प्रकरण पर...
मैंने भी साहित्यकारों से कुछ कहने का प्रयास किया है...
अपने टूटे-फूटे शब्दों में...
ओ लिखने वालो
तुम्हारे पास
वो शब्द हैं
जो बदल सकते हैं
पवन की दिशा
जिन के बल पर
तुम
क्रांति ला सकते हो...
तुम्हारे पास
कलम की ताकत है
वो कलम
जिसका लिखा
रामायण का
एक एक शब्द
भविष्य में
सत्य हुआ...
आद तुम ही
और शस्त्र
हाथ में लिये
कलम के बिना भी
बदलना चाहते हो
आज के हालातों को
कैसे लिखने वाले हो
जो कलम को ही  भूल गये...
साक्षी है समय
कलम के  सिपाहियों ने
विश्व में आज तक
असंख्य क्रांतियां लाई है
कौन कहता है
शस्त्रों से जीती जाती है जंग
जानो, पढ़ो इतिहास
हर जंग कलम ने ही जीती है...

धन्यवाद...

7 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात
    बहुत सुन्दर
    सामयिक प्रसंग
    छठ पूजा की शुभ कामनाएँ

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  2. शुभ प्रभात
    सस्नेहाशीष पुतर जी
    अनोखा अंदाज प्रस्तुतिकरण लिंक्स का
    अच्छा लगा

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर हलचल लिंक्स प्रस्तुति ...धन्यवाद!.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर और विचारणीय प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर और विचारणीय प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं

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