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रविवार, 14 मार्च 2021

2067 ...दिखे ना दिल के जख़्म छुपी रहे सिलन की डोरी

सादर नमस्कार
भाई कुलदीप जी नहीं हैं आज

देखिए आज की रचनाएँ...
उन्ही की स्टाईल में

ज़ख्मों के पैबंद सिलने भटकता रहा मैं l
अश्कों की कभी इस गली कभी उस गली ll 

डोर वो तलाशता रहा ढक दे जो पैबंद की रूही l 
दिखे ना दिल के जख़्म छुपी रहे सिलन की डोरी ll


ग़र्द उस शीशे पे जाने
कब से है जमी हुई,
है नहीं आसां मिटाना
वक्त की निशानियाँ !
मुस्कुराए भर थे हम तो.....


किस ने कहा तुमसे  हर बात  
जैसी  की तैसी  ही मान लो |
अपनी बुद्धि भी कभी  तो  खर्च करो
ज्यादा नहीं तो कुछ तो लाभ हो  |
केवल कानों से  सुने और निकाल दें


इस पठार पर
फूलों वाला
मौसम लाऊँगा ।

मैं अगीत के
साथ नहीं हूँ
गीत सुनाऊँगा ।


फूल खिले हैं क्यारी - क्यारी 
प्रकृति की अनुपम चित्रकारी
माली ने भी की है खूब तैयारी 

वसुन्धरा हर्षित प्रसन्नचित फुलवारी
मौसम अनुकूल कोयल कूके मीठी बोली 
वातावरण में गूंजे प्रकृति होती संगीतमय सारी 
....
बस
कल मिलिएगा संगीता दीदी से
सादर


11 टिप्‍पणियां:

  1. मौके को ताड़कर
    आपने अपनी अहमियत साबित कर दी
    शानदार रचनाएँ भी दी..
    आभार...

    जवाब देंहटाएं
  2. ओह , तो आपने कल के लिए फिर आमंत्रित कर लिया है दिग्विजय जी ।आभार ।
    लिंक्स पर जाते हैं एक ब्रेक के बाद ।

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय दिग्विजय जी
    इस खूबसूरत मंच पर मेरी रचना को स्थान देने के लिए धन्यवाद
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर रचनाओं का चयन तथा लिंक्स की प्रस्तुति..सादर शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  5. सभी लिंक्स अच्छे लगे । मुस्कुराए भर थे हम तो ---मन को भायी ।

    जवाब देंहटाएं
  6. हार्दिक आभार आपका । बहुत अच्छे लिंक्स।

    जवाब देंहटाएं
  7. सुन्दर संकलन आभार मेरी रचना को लिंक में शामिल करने के लिए ।

    जवाब देंहटाएं
  8. सुंदर, सहज सादगीपूर्ण प्रस्तुति है भाईसाहब की। बहुत बहुत धन्यवाद मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए। सभी रचनाएँ अच्छी हैं।

    जवाब देंहटाएं
  9. सुप्रभात
    उम्द्ज़ा संकलन |मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभाए जी |

    जवाब देंहटाएं

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