राजमहल हैं लकदक झूले
तीज के मेले हम कब भूले
सावन, राखी मन ही भीगा
भीड़ बहुत पर रहे अकेले
कैसे जाल निराशा का फिर
अंतर्जाल ने तोड़ दिया..
बुद्धि बनी गांधारी ....अनिता सुधीर आख्या
शब्द लुभावन पासा फेंके
मकड़जाल में मानव
मस्तिष्क शिरा फड़फड़ करती
इच्छा बनती दानव
बंदर जैसे मानव नाचे
साधन बने मदारी।।
विश्व के छाले सहला दो ...कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
पर वो होता था मेरे लिए
तुम किसके लिए सहेज रहे
माँ, भाभी, बहन को देखकर
कुंवारेपन से ही देखने लगती है
स्वप्न
जब वो भी करेगी व्रत
अपने पति के लिये
होते ही सुहागन
करने लगती है कामना
सुहाग के अमर होने की
लुटा रहा वह धार प्रीत की ...अनीता जी
Awesome sir ji
जवाब देंहटाएंThanks for sharing
वाह!सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तूति।
जवाब देंहटाएंफार्मेट तो बिलकुल सही लग रहा है यशोदा जी, मनहर रचनाओं का चयन, आभार !
जवाब देंहटाएंसभी को शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसुन्दर संयोजन, बधाई और मेरी रचना का चयन करने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संकलन।
जवाब देंहटाएंहमें तो सही दिख रहा है
जवाब देंहटाएं–सार्थक सफल कोशिश किए हैं
अति सुन्दर प्रस्तुतीकरण
सस्नेहाशीष अशेष शुभकामनाओं के संग छोटी बहना
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जवाब देंहटाएंThis post provided some valuable insights. Thanks for sharing!
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