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गुरुवार, 19 मार्च 2020

1707...लोकतंत्र की आत्मा कहाँ हुई है बंधक...

सादर अभिवादन। 

सियासी नाटक  
सम्मोहित करता 
अब तो रोज़-रोज़,
लोकतंत्र की आत्मा 
कहाँ हुई है बंधक 
कौन करेगा खोज?
-रवीन्द्र  

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-


कोई तो हो
सही मार्ग दर्शक
बीमारी फैली

कैसी बीमारी 
क्यूँ पसार रही है 
 अपने पैर 


 अवनी की अपनी
कल्पना के सागर में
गोते लगाता
जमीं आसमान को
रंगीन बनाता
बरसाता ख़ुशी आसमान से
लहराती धरा पर
अमृत ले आता


 My photo

किसी को तो रखना होगा 
पहला कदम 
बहुत कठिन है 
हाँ...पर नामुमकिन तो नहीं ..
क्या आप देगें साथ?
मैं भी चाहती तो बहुत थी
पर डरती थी
शायद हार से 
   हिम्मत नहीं थी ...
पर ,अब नहीं ..
चलो ,बढाओ तुम पहला कदम 
दूसरा कदम मेरा होगा



गाँव मुझको अपने पास बुलाता। 
ना जाऊँ तो जी अकुलाता।। 
देता मुझे वो सुख की छाँव। 
क्या सखि साजन?  
नहीं सखि गाँव... 



सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन रहे हैं

चलो 'फ़ैज़' फिर से कहीं दिल लगाएँ
सुना है ठिकाने के दिन रहे हैं.

और चलते-चलते पढ़ते हैं सैनिक जीवन से जुड़े मार्मिक पलों को जीवंत करती एक विशिष्ट रचना-



मुझे याद आती है वो
बैचेन और बेसुध सी शक़्ल
जो मुझे जंग में भेजना नहीं चाहती
जो मुझे जंग में सोच कर सिहर जाती है
जिससे अलविदा कहते नहीं बना
वो जो मेरे चिथड़े देख कर आजीवन खुद को कोसेगी।



                        हम-क़दम का नया विषय
                                              यहाँ देखिए



आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले गुरूवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही शानदार प्रस्तुति
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. लता जी ने जब कोरोना के डर से रूबरू करवाया तो वही रेखा जी के सतरंगी आसमान में उड़ान भरी।
    शुभा जी की मिलावट अच्छी लगी। कहमुकरियों का जवाब नहीं। ऊपर से फ़ैज साहब... ओहोहो।
    कतई स्वाद आ गए।
    मेरी क़लम विशेष पंक्तियों से नवाज़ी गयी।
    आभार आपका। ☺️

    जवाब देंहटाएं
  3. कोरोना पर हाईकू को शामिल करने के लिए धन्यवाद रवीन्द्र जी |

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह!बहुत ही खूबसूरत अंक !!मेरी मिलावट को इस खूबसूरत अंक में शामिल करनें के लिए हृदयतल से आभार रविन्द्र जी ।

    जवाब देंहटाएं

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