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बुधवार, 3 अक्तूबर 2018

1174..हर बात पर गहरी वो नजर रखते है ..

।।शुभ भोर वंदन।।

जानने की प्रक्रिया में होने और जीने की प्रक्रिया में जानने वाला मिजाज़ 
जिन लोगों का है उनमें मैं अपने को पाता हूँ। 
धर्मवीर भारती
कुछ ऐसी ही मिजाज़ के साथ एक और प्रक्रिया कि हमनें बातें बहुत की दिवस /पखवाड़े भी मना ली..
अच्छा हो कि अब अहद करें.. अगर हम सच में चाहते हैं कि हिन्दी लगातार समृद्ध हो तो हम साल में 
पांच से दस किताबें जरूर खरीदें और अपने संगी साथियों को हिन्दी किताबें भेंट करें..
अब निगाहें डाले आज की लिंकों पर..✍
🕊
अंकित चौधरी जी की सवालों के घेरे में मन की व्यथा...

गजब क्यूँ है ये बेचैनी, अजब माहौल है कैसा ?
सांसे जम सी जाती है ,क्यूँ भरी जवानी मे?
मिलन क्यूँ नहीं होता है ,किसी भी प्रेम-कहानी मे?

🕊

डॉ इंदिरा जी के चंद अल्फाज़

वफा हो या बेवफाई कायदे से निभा लेते है ! 
ना उम्र का जिक्र हो ना अल्फाजों का बंधन 
यहां इश्के कशिश जारी जो देखें केवल मन ! 
चंद  अशआर ना चंद अजाने 
इबादत है चंद अश्क दाने ! 

🕊

चौथाखंभा से..

मिलॉर्ड ने जैसे ही इधर उधर मुँह मारने का लाइसेंस फ्री कर दिया वैसे ही अपने भाय जी के दिल में लड्डू फूटने लगा। वह भी कैडबरी टाइप। धड़ाम धड़ाम। आंख में आगे दर्जनों फेसबुक फ्रेंडनी का चिक्कन-चुप्पड़ चेहरा डांस करने लगा। भाय जी आंख बंद कर सपने में खो गए। कल जिसको इनबॉक्स में चैट किया वही सपने में छा गयी।
तभी भौजाई जी धमक गयी। आंख मूंदे, मुस्कुराते भाय जी को देख वे ..

🕊

रेवा जी की सुंदर रचना..
जहाँ मैं घर घर खेली
गुड्डे गुड़ियों की बनी सहेली
वो घर  मेरा भी था
जहाँ मैं रूठी ,इठलाई 
और ज़िद्द में हर बात 
मनवाई
वो घर मेरा भी था
जहां मेरे बचपन के थे संगी साथी 
🕊

इसी के साथ आज "जीवन रंग" के साथ थमती हूँ...

नींद के आगोश में ।
अरूणाभ ऊषा ने
छिड़क दिया सिंदूरी रंग
कुदरत के कैनवास पर ।
पूरी कायनात सज गई
अरूणिम मरकती रंगों से ।
भोर की भंगिमा निखर गई
प्रकृति के विविध अंगों से ।
🕊
हम-क़दम के उनचालिसवें क़दम
का विषय...
यहाँ देखिए...........
🕊

।।इति शम।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍




14 टिप्‍पणियां:

  1. अब वहाँ हर चीज़ है अजनबी
    चुपपी ही लगती है भली
    महमान कहलाते हैं जहाँ हम
    मायके कह कर उसे बुलाते हैं
    अब हम
    स्त्री के मनोभाव पर बहुत ही सुंदर और सजीव रचना पढ़ने को मिली। आभार आप सभी रचनाकारों का।

    जहाँ, तक हिन्दी की बात है,तो वे भद्रजन जो स्वयं को आम आदमी से अलग समझते है, वे अपनी मातृभाषा को सम्मान देने लगेंगे,अपने ही घर में दासी कहलाने का उसका दर्द दूर हो जाएगा।
    तब न पखवाड़े की आवश्यकता होगी, न दिवस की...
    सुबह सुबह इन सुंदर रचनाओं के लिये पुनः आभार।

    जवाब देंहटाएं
  2. शुभ प्रभात सखी
    प्रारम्भ धर्मवीर भारती की पंक्तियों के साथ
    आनन्दित हुई
    सटीक चयन
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण संकलन सभी चयनित रचनाकारों को बधाई

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत प्रभावी भूमिका और उम्दा लिंक संयोजन । चयनित रचनाकारों को बधाई । संकलन में मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद आपका ।

    जवाब देंहटाएं
  5. शुभ प्रभात सखी
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर प्रस्तुति शानदार रचनाएं सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ही सुन्दर और उम्दा प्रस्तुति ,चयनित रचनाकारों को बधाई । संकलन में मेरी रचना को स्थान देने के लिए सादर धन्यवाद ...

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत ही उम्दा भूमिका...जानदार रचनाओं से सजा आज का अंक बेहद प्रभावशाली लगा पम्मी जी।
    बधाई स्वीकार करें।

    जवाब देंहटाएं
  9. हम तो कबसे कह रहे हैं कि जैसे धनतेरस पर बर्तन खरीदने का सगुन है, वैसे ही वसंत पंचमी को पुस्तक खरीदने का पर्व मनाएं, कम से कम एक हिंदी साहित्य की। सुंदर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  10. लाजवाब प्रस्तुति करण उम्दा लिंक संकलन...

    जवाब देंहटाएं

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