सभी का स्नेहिल अभिवादन।
फागुन का महीना आते ही सारा वातावरण जैसे रंगीन हो जाता है और हो भी क्यों न, रंगों के त्योहार की खुमारी जो रहती है। पीली,लाल,गुलाबी, हरी चूनर ओढ़े प्रकृति और जाति भेद, ऊँचनीच, अमीरी-गरीबी से ऊपर उठकर मित्रता और भाईचारे का संदेश देता त्योहार होली का...।
साहित्यिक दृष्टिकोण से हर मौसम का रंग,स्वाद,गंध अनूठा रहा है सदैव ,परंतु वर्तमान दौर रूखा,फीका,बेरंग,बेस्वाद, गंधहीन होता साहित्य फागुन के सजीले,चटकीले,मादक रंगों को भला कैसे सहेजेगा ?
'फागुन' के सौन्दर्य को कवियों और शायरों ने बखूबी कलमबंद किया है। आइये उन्हीं की नजरों से देखते हैं फागुन को-
सामान्य रचनाओं से अलग पढ़िए आज की कविताएँ-
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अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी दाल
कहीं पड़ी है उर में
मंद-गंध-पुष्प-माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।
कवि-गिरजा कुमार माथुर
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आज हैं केसर रंग रँगे वन
रंजित शाम भी फागुन की खिली-खिली पीली कली-सी
केसर के वसनों में छिपा तन
सोने की छाँह-सा
बोलती आँखों में
पहले वसंत के फूल का रंग है।
गोरे कपोलों पे हौले से आ जाती
पहले ही पहले के
रंगीन चुंबन की-सी ललाई।
आज हैं केसर रंग रँगे
गृह द्वार नगर वन
जिनके विभिन्न रंगों में है रँग गई
पूनो की चंदन चाँदनी।
जीवन में फिर लौटी मिठास है
गीत की आख़िरी मीठी लकीर-सी
प्यार भी डूबेगा गोरी-सी बाँहों में
होंठों में आँखों में
फूलों में डूबे ज्यों
फूल की रेशमी रेशमी छाँहें।
आज हैं केसर रंग रँगे वन।
कवि-रवींद्र नाथ टैगोर
अनुवाद-भवानी प्रसाद मिश्र
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पंचशर को भस्म करके, यह क्या किया है संन्यासी,
सारे संसार में व्याप्त कर दिया उसे।
उसकी वंदना व्याकुलतर होकर हवा में उच्छ्वसित हो रही है,
उसके आँसू आकाश में बह रहे हैं।
सारा संसार रति के विलाप-संगीत से भर उठा है,
और समस्त दिशाएँ अपने-आप क्रंदन कर रही हैं।
फागुन मास में न जाने किसके इशारे पर
धरती सिहरकर मूर्छित हो जाती है क्षग-भर में।
आज इसीलिए समझ में नहीं आता कौन-सी यंत्रणा
रोमांचित और ध्वनित हो रही है हृदय-वीणा में,
तरुणी समझ नहीं पाती
पृथ्वी और आकाश की सभी वस्तुएँ
उसे एक स्वर में कौन-सा संदेश दे रही हैं।
बकुल-तरु-पल्लवों में
कौन-सी बात मर्मरित हो उठती
भ्रमर क्या गुंजार रहा है।
सूर्यमुखी उद्ग्रीव होकर
किस प्रियतम का स्मरण कर रही है,
निर्झरिणी कौन-सी प्यास लिए
बहती चली जा रही है।
चाँदनी के आलोक में यह चुनरिया किसकी है,
नीरव नील गगन में ये किसके नयन हैं!
किरणों के घूँघट में यह किसका मुख देखता हूँ,
कोयल दूर्वा दल पर किसके चरण हैं!
फूलों की सुगंध में किसका स्पर्श
प्राण और मन को उल्लास से भरकर
हदय को लता की तरह कस देता है—
कामदेव को भस्म करके तुमने यह क्या किया हे संन्यासी,
उसे सारे संसार में व्याप्त कर दिया।
कवि-भवानी प्रसाद मिश्र
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चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ!
आज पीले हैं सरसों के खेत, लो;
आज किरनें हैं कंचन समेत, लो;
आज कोयल बहन हो गई बावली
उसकी कुहू में अपनी लड़ी गीत की-
हम मिलाएँ।
चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ!
आज अपनी तरह फूल हँसकर जगे,
आज आमों में भौरों के गुच्छे लगे,
आज भौरों के दल हो गए बावले
उनकी गुनगुन में अपनी लड़ी गीत की
हम मिलाएँ!
चलो, फागुन की खुशियाँ मनाएँ!
आज नाची किरन, आज डोली हवा,
आज फूलों के कानों में बोली हवा,
उसका संदेश फूलों से पूछें, चलो
और कुहू करें गुनगुनाएँ!
कवि-धर्मवीर भारती
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घाट के रस्ते
उस बँसवट से
इक पीली सी चिड़िया
उसका कुछ अच्छा-सा नाम है !
मुझे पुकारे !
ताना मारे,
भर आयें आँखड़ियाँ !
उन्मन, ये फागुन की शाम है ! (1)
घाट की सीढ़ी तोड़-फोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं
झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं
तोतापंखी किरनों में हिलती बांसों की टहनी
यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी
आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी !
अच्छा अब जाने दो मुझ को घर में कितना काम है ! (2)
इस सीढ़ी पर, जहाँ पर लगी हुई है काई
फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाहों में कितना शरमायी !
यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन !
यहां न आऊंगी अब, जाने क्या करने लगता मन !
लेकिन तब तो कभी ना हम में तुम में पल-भर बनती !
तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है ! (3)
अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों में भटकी डोले
कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले
ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा
मेरे संग-संग अक्सर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा
पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से
कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है !
ये फागुन की शाम है ! (4)
पंचशर को भस्म करके,
जवाब देंहटाएंयह क्या किया है संन्यासी,
सारे संसार में व्याप्त कर दिया उसे।
सुंदर अंक
सारगर्भित रचनाओं के साथ
वंदन