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मौसम बदल रहा है। माघ की शीतल छुअन
और फागुन की हल्की मीठी-सी आँच के मध्य खिलते पलाश कितने मनमोहक लगते हैं न...।
पिघल रही सर्दियाँ
झर रहे वृक्षों के पात
निर्जन वन के दामन में
खिलने लगे पलाश
सुंदरता बिखरी फाग की
चटख रंग उतरे घर आँगन
लहराई चली नशीली बयार
लदे वृक्ष भरे फूल पलाश।
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आज की रचनाएँ
स्त्रियाँ गालियां खाती हैं
अपनी गलतियों पर
दूसरों की गलतियों पर
यहाँ तक कि वे गालियां खाती हैं
अच्छे काम के लिए
औरों से बेहतर काम के लिए
जब वे तेजी से आगे बढ़ रही होती हैं
वे पीछे गालियां खा रही होती हैं ।
मृतक मुड़-मुड़ कर देखता है
कुछ समय तक तक
जब सब कुछ होने लगता है सामान्य
वो देखना बंद कर कूद जाता होगा आगे की तरफ
आगे की तरफ कुछ भी हो सकता है
स्वर्ग-नर्क,शून्य या फिर से एक नया जीवन
पूर्णमासी वाले दिन सुबह से दादी की तबियत में बहुत सुधार था। सब चैन की साँस ले रहे थे। लेकिन दादी ने शोर मचा दिया कि जल्दी खाना बनाओ और सब लोग जल्दी खा लो। खाना बनते ही सबसे पहले जो युवा सेवक घर के काम के लिए नियुक्त था कहा पहले इसे खिलाओ। बोलीं मैं चली गई तो तुम सब तो रोने-धोने में लगे रहोगे ये बेचारा भूखा रह जाएगा। वो मना करता रहा पर अपने सामने बैठा कर उसे खूब प्रेम से खिलाया -पिलाया फिर सबको कहा तुम सब भी जल्दी खाओ।
जब वह स्त्री 60 वर्ष की हुई, तो उसने अपने बेटों से चार धाम यात्रा की इच्छा जताई। बेटे तुरंत तैयार हो गए और मां को लेकर यात्रा पर निकल पड़े। एक दिन यात्रा के दौरान भोजन के लिए वे रुके। बेटों ने मां के लिए भोजन परोसा और उसे खाने का आग्रह किया। तभी स्त्री की नजर एक भूखे और गंदे वृद्ध पुरुष पर पड़ी, जो बड़ी कातर निगाहों से उनके भोजन की ओर देख रहा था।
शालिनी जब अपना त्यागपत्र पदाधिकारी को सौंपती है तो पदाधिकारी के सुझाव पर त्यागपत्र नहीं देकर अवैतनिक छुट्टी पर जाने का विचार मान लेती है। पदाधिकारी उसके मन में शक का बीज रोपने में सफल रहते हैं और उसे चौकन्ना रहने की सलाह भी देते हैं। शालिनी अपने अवैतनिक छुट्टी पर जाने की बात शान से छुपा लेती है और शान की मदद से अपना स्टार्टअप शुरू करती है। उसकी दिन-रात की मेहनत और शान के साथ से उसे लगता है कि उसका जीवन सहज रूप में गुजर रहा है तो वह शान से शादी का प्रस्ताव रखती है। शान उसे कुछ दिन और प्रतीक्षा करने की बात करता है।
गाँधी पर बहस मुबाहिसे होते ही रहते हैं,……..ऐसा करते- करते कब गाँधी मन में गहरे समा गये पता ही नहीं चला। …….उस समय जब मंच पर बापू को देखती तो मेरे मन के भीतर की ‘स्त्री’ बापू को ‘बा’ की नज़र से परखती। तभी जब टीकम ने कहा कि गाँधी पर नाटक लिखो जो अलग नज़रिए से हो।
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सुंदर संचयन
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
वंदन
आपकी चिर परिचित मोहक और प्रभावी शैली में आज के इस अंक का पुरोवाक। अत्यंत स्तरीय एवं सार्थक रचनाओं का संकलन। हार्दिक बधाई और आभार।
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